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प्रस्तावना
- प्रमाणनिरूपण ]
नहीं सकेगा; क्योंकि अर्थकाल में तो ज्ञान अनुत्पन्न है तथा ज्ञानकाल में अर्थ विनष्ट हो चुका है। यदि ज्ञान अपने कारणों को जाने; तो उसे इन्द्रियाद्रिक को भी जानना चाहिए । ज्ञान का अर्थ के साथ अन्वय और व्यतिरेक न होने से भी उनमें कारण- कार्यभाव नहीं हो सकता । संशयज्ञान अर्थ के अभाव में भी हो जाता है । संशयज्ञानस्थल में स्थाणु- पुरुषरूप दो अर्थ तो विद्यमान नहीं हैं । अर्थ या तो स्थाणुरूप होगा यां पुरुषरूप । व्यभिचारअन्यथा प्रतिभास बुद्धिगत धर्म है । जब मिथ्याज्ञान में इन्द्रियगत - तिमिरादि, विषयगत
शुभ्रमणादि, बाह्य - नौका में यात्रा करना आदि तथा आत्मगत - वातपित्तादिजन्य क्षोभ आदि दो कारण होते हैं; तत्र तो अर्थ की हेतुता अपने ही आप व्यर्थ हो जाती है । मिथ्याज्ञान यदि इन्द्रियों की दुष्टता से होता है; तो सत्यज्ञान में भी इन्द्रियगत निर्दोषता ही कारण होगी। अतः इन्द्रिय और मन को ही ज्ञान में कारण मानना चाहिए। अर्थ तो ज्ञान का विषय ही हो सकता है, कारण नहीं ।
अन्य कारणों से उत्पन्न बुद्धि के द्वारा सन्निकर्ष का निश्चय होता है, सन्निकर्ष से बुद्धि का निश्चय तो नहीं देखा जाता । सन्निकर्षप्रविष्ट अर्थ के साथ ज्ञान का कार्यकारणभाव तब निश्चित हो सकेगा; जब सन्निकर्षप्रविष्ट आत्मा, मन, इन्द्रिय आदि किसी एक ज्ञान के विषय हों । पर आत्मा, मन और इन्द्रियाँ तो अतीन्द्रिय हैं, अतः पदार्थ के साथ होनेवाला इनका सन्निकर्ष भी अतीन्द्रिय होगा और जब वह विद्यमान रहते हुए भी प्रत्यक्ष है, तब उसे ज्ञान की उत्पत्ति में कारण कैसे माना जाय ? ज्ञान अर्थ को तो जानता है, पर अर्थ में रहनेवाली स्व-कारणता को नहीं जानता । ज्ञान जब अतीत और अनागत पदार्थों को जो ज्ञानकाल में अविद्यमान हैं, जानता है; तब तो अर्थ की ज्ञान
प्रति कारणता अपने आप निःसार सिद्ध हो जाती है । देखो - कामलादि रोगवाले को शुक्लशंख में विद्यमान पीलेपन का ज्ञान होता है । मरणोन्मुख व्यक्ति को अर्थ के रहने पर भी ज्ञान नहीं होता या विपरीतज्ञान होता है ।
क्षणिक अर्थ तो ज्ञान के प्रति कारण हो ही नहीं सकता; क्योंकि जब वह क्षणिक होने से कार्यकाल तक नहीं पहुँचता तब उसे कारण कैसे कहा जाय ? अर्थ के होने पर उसके काल में ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ तथा अर्थ के अभाव में ही ज्ञान उत्पन्न हुआ तब ज्ञान अर्थ का कार्य कैसे माना जाय ? कार्य और कारण एक साथ तो रह ही नहीं सकते । यह कहना भी ठीक नहीं है कि - " यद्यपि अर्थ नष्ट हो चुका है पर वह अपना आकार ज्ञान में समर्पित कर चुकने के कारण ग्राह्य होता है । पदार्थ में यही ग्राह्यता है कि वह ज्ञान को उत्पन्न कर उसमें अपना आकार अर्पण करे ।” क्योंकि ज्ञान अमूर्त है वह मूर्त अर्थ के प्रतिबिम्बको धारण नहीं कर सकता । मूर्त्त दर्पणादि में ही मूर्त्त मुखादि का प्रतिबिम्ब
ता है, अमूर्त में मूर्त का नहीं। यदि पदार्थ से उत्पन्न होने के कारण ज्ञान में विषयप्रतिनियम हो; तो जब इन्द्रिय प्रादि से भी घटज्ञान उत्पन्न होता है तब उसे घट की तरह इन्द्रिय आदि
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