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________________ अकलङ्कग्रन्थत्रय [ग्रन्थ को भी विषय करना चाहिये। तदाकारता से विषयप्रतिनियम मानने पर एक अर्थ का ज्ञान करने पर उसी आकारवाले यावत् समान अर्थों का परिज्ञान होना चाहिए। तदुत्पत्ति और तदाकारता मिलकर यदि विषयनियामक हों; तो घटज्ञान से उत्पन्न द्वितीय घटज्ञान को, जिसमें पूर्वज्ञान का आकार है तथा जो पूर्वज्ञान से उत्पन्न भी हुआ है, अपने उपादानभूत पूर्वज्ञान को जानना चाहिये । पर बौद्धों के सिद्वान्तानुसार 'ज्ञानं ज्ञानस्य न नियामकम्'-ज्ञान ज्ञान का नियामक नहीं होता। तदध्यवसाय ( अनुकूल विकल्प का उत्पन्न होना) से भी वस्तु का प्रतिनियम नहीं होता; क्योंकि शुक्लशंख में होनेवाले पीताकारज्ञान से उत्पन्न द्वितीयज्ञान में तदध्यवसाय देखा जाता है पर नियामकता नहीं है । अतः अपने अपने कारणों से उत्पन्न होनेवाले अर्थ और ज्ञान में परिच्छेद्य-परिच्छेदकभाव-विषय-विषयिभाव होता है। जैसे दीपक अपने तैलादि कारणों से प्रज्वलित होकर मिट्टी आदि से उत्पन्न होनेवाले घटादि को प्रकाशित करता है, उसीतरह इन्द्रिय तथा मन आदि कारणों से उत्पन्न ज्ञान अपने कारणों से उत्पन्न अर्थ को जानेगा। जैसे 'देवदत्त काठ को छेदता है' यहाँ अपने अपने कारणों से उत्पन्न देवदत्त तथा काष्ठ में कर्तृ-कर्मभाव है उसी तरह स्व-स्वकारणों से समुत्पन्न ज्ञेय और ज्ञान में ज्ञाप्य-ज्ञापकभाव होता है। जैसे खदान से निकली हुई मलयुक्त मणि अनेक शाण आदि कारणों से तरतम-न्यूनाधिकरूपसे निर्मल एवं स्वच्छ होती है उसी तरह कर्मयुक्त आत्मा का ज्ञान अपनी विशुद्धि के अनुसार तरतमरूपसे प्रकाशमान होता है, और अपनी क्षयोपशमरूप योग्यता के अनुसार पदार्थों को जानता है। अतः अर्थ को ज्ञान में कारण नहीं माना जा सकता । __ आलोककारणतानिरास-आलोकज्ञान का विषय आलोक होता है, अतः वह ज्ञान का कारण नहीं हो सकता। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञान का कारण नहीं होता जैसे अन्धकार । आलोक का ज्ञान के साथ अन्वय-व्यतिरेक न होने से भी वह ज्ञान का कारण नहीं कहा जा सकता। यदि आलोक ज्ञान का कारण हो तो उसके अभाव में ज्ञान नहीं होना चाहिये, पर अन्धकार का ज्ञान आलोक के अभाव में ही होता है । नक्तञ्चररात्रिचारी उल्लू आदि को आलोक के अभाव में ही ज्ञान होता है तथा उसके सद्भाव में नहीं। 'आलोक के अभाव में अन्धकार की तरह अन्य पदार्थ क्यों नहीं दिखते' इस शंका का उत्तर यह है कि-अन्धकार अन्य पदार्थों का निरोध करनेवाला है, अतः आलोक के अभाव में निरोध करनेवाला अन्धकार तो दिखता है पर उससे निरुद्ध अन्य पदार्थ नहीं । जैसे एक महाघट के नीचे दो चार छोटे घट रखे हों, तो महाघट के दिखने पर भी उसके नीचे रखे हुए छोटे घट नहीं दिखते । अन्धकार ज्ञान का विषय है अतः वह ज्ञान का आवरण भी नहीं माना जा सकता। ज्ञान का आवरण तो ज्ञानावरण कर्म ही हो सकता है। इसीके क्षयोपशम की तरतमता से ज्ञान के विकास में तारतम्य होता है । अत: आलोक के साथ ज्ञानका अन्वय-व्यतिरेक न होने से आलोक भी ज्ञान का . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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