SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना ७५ प्रमेयनिरूपण] कारण नहीं हो सकता । अर्थालोककारणताविषयक अकलंक के इन विचारों का उत्तरकालीन माणिक्यनन्दि आदि आचार्यों ने प्रायः उन्हींके ही शब्दों में अनुसरण किया है । प्रमाण का फल-प्रशस्तपादभाष्य तथा न्यायभाष्यादि में हान, उपादान एवं उपेक्षाबुद्धि को प्रमाण का फल कहा है । समन्तभद्र पूज्यपाद आदि ने अज्ञाननिवृत्ति का भी प्रमाण के अभिन्न फलरूपसे प्ररूपण किया है । अकलंकदेव अज्ञाननिवृत्ति के विधिपरकरूपतत्त्वनिर्णय का तथा हान, उपादान, उपेक्षाबुद्धि के साथ ही परनिःश्रेयस का भी प्रमाण के फलरूपसे कथन करते हैं। केवलज्ञान बीतराग योगियों के होता है अतः उनमें रागद्वेषजन्य हानोपादान का संभव ही नहीं है, इसलिये केवलज्ञान का फल अज्ञाननिवृत्ति और उपेक्षाबुद्धि है । इनमें अज्ञाननिवृत्ति प्रमाण का साक्षात् फल है, शेष परम्परा से। २. प्रमेयनिरूपण प्रमाण का विषय-यद्यपि अकलंकदेव ने प्रमाण के विषय का निरूपण करते समय लघीयस्त्रय में द्रव्यपर्यायात्मक अर्थ को ही प्रमेय बताया है, पर न्यायविनिश्चय में उन्होंने द्रव्य-पर्याय के साथ ही साथ सामान्य और विशेष ये दो पद भी प्रयुक्त किए हैं। वस्तु में दो प्रकार का अस्तित्व है-१ स्वरूपास्तित्व, २ सादृश्यास्तित्व । एक द्रव्य की पर्यायों को दूसरे सजातीय या विजातीय द्रव्य से असङ्कीर्ण रखने वाला खरूपास्तित्व है। जैसे एक शाबलेय गौ की हरएक अवस्था में 'शाबलेय शाबलेय' व्यवहार करानेवाला तत्-शाबलेयत्व । इससे एक शाबलेय गौव्यक्ति की पर्याएँ अन्य सजातीय शाबलेयादि गौव्यक्तियों से तथा विजातीय अश्वादिव्यक्तियों से अपनी पृथक् सत्ता रखती हैं। इसी को जैन द्रव्य, ध्रौव्य, अन्वय, ऊर्ध्वतासामान्य आदि शब्दों से व्यवहृत करते हैं। मालूम तो ऐसा होता है कि बौद्धों ने सन्तानशब्द का प्रयोग ठीक इसी अर्थ में किया है । इसी स्वरूपास्तित्व को विषय करनेवाला 'यह वही है' यह एकत्वप्रत्यभिज्ञान होता है । अपनी भिन्न भिन्न सत्ता रखनेवाले पदार्थों में अनुगतव्यवहार करानेवाला सादृश्यास्तित्व है। जैसे भिन्न भिन्न गौव्यक्तियों में ‘गौ गौ ' इस अनुगतव्यवहार को करानेवाला साधारण गोत्व । इसे तिर्यक् सामान्य कहते हैं । गौत्वादि जातियाँ सदृशपरिणाम रूप ही हैं, नित्य एक तथा निरंश नहीं हैं । एक द्रव्य की पूर्वोत्तर पर्यायों में व्यावृत्तप्रत्यय पर्यायरूप विशेष के निमित्त से होता है । भिन्न सत्ता रखने वाले दो द्रव्यों में विलक्षणप्रत्यय व्यतिरेकरूप विशेष ( द्रव्यगतभेद ) से होता है। इस तरह दो प्रकार के सामान्य तथा दो प्रकार के विशेष से युक्त वस्तु प्रमाण का विषय होती है। ऐसी ही वस्तु सत् है । सत् का लक्षण है-उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्यसे युक्त होना। सत् को ही द्रव्य कहते हैं । उत्पाद और व्यय पर्याय की दृष्टि से हैं जब कि ध्रौव्य गुण की दृष्टि से । अतः द्रव्य का गुण-पर्यायवत्त्व लक्षण भी किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy