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________________ ७६ अकलङ्कग्रन्थत्रय [प्रन्थ द्रव्य एक अखंड तत्त्व है। वह संयुक्त या रासायनिक मिश्रण से तैयार न होकर मौलिक है। उसमें भेदव्यवहार करने के लिए देश, देशांश तथा गुण, गुणांश की कल्पना की जाती है। ज्ञान अखण्डद्रव्य को ग्रहण भले ही कर ले, पर उसका व्यवहार तो एक एक धर्म के द्वारा ही होता है । इन व्यवहारार्थ कल्पित धर्मों को गुण शब्दसे कहते हैं । वैशेषिकों की तरह गुण कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है । द्रव्य के सहभावी अंश गुण कहलाते हैं, तथा क्रम से होने वाले परिणमन पर्याय कहलाते हैं । इस तरह अखण्ड मौलिक तत्त्व की दृष्टि से वस्तु नित्य होकर भी क्रमिक परिणमन की अपेक्षा से अनित्य है । नित्य का तात्पर्य इतना ही है कि-वस्तु प्रतिक्षण परिणमन करते हुए भी अपने स्वरूपास्तित्व को नहीं छोड़ सकती। कितना भी विलक्षण परिणमन क्यों न हो जीव कभी भी पुद्गलरूप नहीं हो सकता। इस असांकर्य का नियामक ही द्रव्यांश है । सांख्य के अपरिणामी कूटस्थ नित्य पुरुष की तरह नित्यता यहाँ विवक्षित नहीं है और न बौद्ध की तरह सर्वथा अनित्यता ही; जिससे वस्तु सर्वथा अपरिणामी तथा पूर्वक्षण और उत्तरक्षण सर्वथा अनन्वित रह जाते हैं। ध्रौव्य और सन्तान-यहाँ यह कह देना आवश्यक है कि जिस प्रकार जैन एक द्रव्यांश मानते हैं उसी तरह बौद्ध सन्तान मानते हैं। प्रत्येक परमाणु प्रतिक्षण अपनी अर्थपयीय रूपसे परिणमन करता है, उसमें ऐसा कोई भी स्थायी अंश नहीं बचता जो द्वितीय क्षण में पयाय के रूप में न बदलता हो । यदि यह माना जाय कि उसका कोई एक अंश बिलकुल अपरिवर्तनशील रहता है और कुछ अंश सर्वथा परिवर्तनशील; तब तो नित्य तथा क्षणिक दोनों पक्षों में दिए जाने वाले दोष ऐसी वस्तु में आँयगे । कथञ्चित्तादात्म्य सम्बन्ध मानने के कारण पयायों के परिवर्तित होने पर भी अपरिवर्तिष्णु कोई अंश हो ही नहीं सकता । अन्यथा उस अपरिवर्तिष्णु अंश से तादात्म्य रखने के कारण शेष अंश भी अपरिवर्तनशील ही होंगे । इस तरह कोई एक ही मार्ग पकड़ना होगा-या तो वस्तु बिलकुल नित्य मानी जाय या बिलकुल परिवर्तनशील-चेतन भी अचेतनरूपसे परिणमन करने वाली । इन दोनों अन्तिम सीमाओं के मध्य का ही वह मार्ग है जिसे हम द्रव्य कहते हैं। जो न बिलकुल अपरिवर्तनशील है और न इतना विलक्षण परिवर्तन करनेवाला जिससे अचेतन भी अपनी अचेतनत्व की सीमा को लाँधकर चेतन बन जाए, या दूसरे अचेतन द्रव्यरूप हो जाय । अथवा एक चेतन दूसरे सजातीय चेतनरूप या विजातीय अचेतनरूप हो जाय । उसकी सीधे शब्दों में यही परिभाषा हो सकती है कि किसी एक द्रव्य के प्रतिक्षण में परिणमन करने पर भी जिसके कारण उसका दूसरे सजातीय या विजातीय द्रव्यरूपसे परिणमन नहीं होता, उस वरूपास्तित्व का ही नाम द्रव्य, ध्रौव्य या गुण है । बौद्ध के द्वारा माने गए सन्तान का भी यही कार्य है कि वह नियत पूर्वक्षण का नियत उत्तरक्षण के साथ ही कार्य-कारणभाव बनाता है क्षणान्तर से नहीं। तात्पर्य यह कि इस सन्तान के कारण एक चेतनक्षण अपनी उत्तर चेतनक्षणपर्याय का ही कारण होगा, विजातीय अचेतनक्षण का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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