________________
प्रमेयनिरूपण]
प्रस्तावना
और सजातीय चेतनान्तरक्षण का नहीं। इस तरह तात्त्विक दृष्टि से द्रव्य या सन्तान के कार्य या उपयोग में कोई अन्तर नहीं है । हाँ, अन्तर है तो केवल उसके शाब्दिक स्वरूपनिरूपण में । बौद्ध उस सन्तान को काल्पनिक कहते हैं, जब कि जैन उस द्रव्यांश को पर्याय क्षण की तरह वास्तविक कहते हैं । सदा कूटस्थ अविकारी नित्य अर्थ में तो जैन भी उसे वस्तु नहीं कहते । सन्तान को समझाने के लिए बौद्धों ने यह दृष्टान्त दिया है किजैसे दस आदमी एक लाइन में खड़े हैं पर उनमें पंक्ति जैसी कोई एक अनुस्यूत वस्तु नहीं है, उसी तरह क्रमिक पर्यायों में कूटस्थ नित्य कोई द्रव्यांश नहीं है। पर इस दृष्टान्त की स्थिति से द्रव्य की स्थिति कुछ विलक्षण प्रकार की है । यद्यपि यहाँ दश भिन्नसत्ताक पुरुषों में पंक्ति नाम की कोई स्थायी वस्तु नहीं है फिर भी पंक्ति का व्यवहार हो जाता है। पर एक द्रव्य की क्रमिक पर्याएँ दूसरे द्रव्य की पर्यायों से किसी स्वरूपास्तित्वरूप तात्त्विक अंश के माने बिना असंक्रान्त नहीं रह सकतीं। यहाँ एक पुरुष चाहे तो इस पंक्ति से निकलकर दूसरी पंक्ति में शामिल हो सकता है। पर कोई भी पर्याय चाहने पर भी दूसरे सजातीय या विजातीय द्रव्य की पर्याय से संक्रान्त नहीं हो सकती और अपने द्रव्य में भी अपना क्रम छोड़कर न आगे जा सकती है और न पीछे । अतः द्रव्यांश मात्र पंक्ति एवं सेना आदि की तरह बुद्धिकल्पित नहीं है किन्तु क्षण की तरह सत्य है । इस तरह द्रव्यपर्यायात्मक-उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक वस्तु अर्थक्रियाकारी है, सर्वथा क्षणिक तथा सर्वथा नित्य वस्तु अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकती।
बौद्ध सत् का लक्षण अर्थक्रियाकारित्व करते हैं । अर्थक्रिया दो प्रकार से होती है१ क्रम से, २ यौगपद्यरूप से । उनका कहना है कि नित्य वस्तु न क्रम से ही अर्थक्रिया कर सकती है और न युगपत् । अतः अर्थक्रियाकारित्व रूप सत्त्व के अभाव में वह असत् ही सिद्ध होती है । नित्य वस्तु सदा एकरूप रहती है, अतः जब वह समर्थ होने से सभी कार्यों को युगपत् उत्पन्न कर देगी, तब कार्यों में भेद नहीं हो सकेगा; क्योंकि कार्यों में भेद कारण के भेद से होता है । जब कारण एक एवं अपरिवर्तनशील है तब कार्यभेद का वहाँ अवसर ही नहीं है । यदि वह युगपत् अर्थक्रिया करे, तो सभी कार्य एक ही क्षण में उत्पन्न हो जायगे, तब दूसरे क्षण में नित्य अकिञ्चित्कर ठहरेगा। इस तरह क्रमयोगपद्य से अर्थक्रिया का विरोध होने से नित्य असत् है ।
अकलंकदेव कहते हैं कि-यदि नित्य में अर्थक्रिया नहीं बनती तो सर्वथा क्षणिक में भी तो उसके बनने की गुंजाइश नहीं है । क्षणिकवस्तु एकक्षण तक ही ठहरती है, अतः जो जिस देश तथा जिस काल में है वह उसी देश तथा काल में नष्ट हो जाती है । इसलिये जब वह देशान्तर या कालान्तर तक किसी भी रूप में नहीं जाती तब देशकृत या कालकृत क्रम उसमें नहीं आ सकता, अत: उसमें क्रमसे अर्थक्रिया नहीं बनेगी। निरंश होने से उसमें एक साथ अनेकखभाव तो रहेंगे ही नहीं; अतः युगपत् भी अनेक कार्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org