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________________ अकलङ्क प्रन्थत्रय [ प्रन्थ कैसे हो सकते हैं ? एक स्वभाव से तो एक ही कार्य हो सकेगा । कारण में नाना शक्तियाँ माने बिना कार्यों में नानात्व नहीं आ सकता । इस तरह सर्वथा क्षणिक तथा नित्य दोनों वस्तुओं में अर्थक्रिया नहीं हो सकती । अर्थक्रिया तो उभयात्मक - नित्यानित्यात्मक वस्तु में ही संभव है । क्षणिक में अन्वित रूप नहीं है तथा नित्य में उत्पाद और व्यय नहीं हैं । उभयात्मक वस्तु में ही क्रम, यौगपद्य तथा अनेक शक्तियाँ संभव हैं । अर्थनिरूपण के प्रसंग में कलंक ने विभ्रमवाद, संवेदनाद्वैतवाद, परमाणुरूपअर्थवाद, अवयव से भिन्न प्रवयविवाद, अन्यापोहात्मक सामान्यवाद, नित्यैक सर्वगत-सामान्यवाद, प्रसङ्ग से भूतचैतन्यवाद आदि का समालोचन किया है। जिसका सार यह है विभ्रमवाद निरास - स्वमादि विभ्रम की तरह समस्त ज्ञान विभ्रम हैं । जिस प्रकार खम में या जादू के खेल में अथवा मृगतृष्णा में अनेकों पदार्थ सत्यरूप से प्रतिभासित तो होते हैं, पर उनकी वहाँ कोई वास्तविक सत्ता नहीं है, मात्र प्रतिभास ही प्रतिभास होता है, उसी तरह घटपटादि ज्ञानों के विषयभूत घटपटादि अर्थ भी अपनी पारमार्थिक सत्ता नहीं रखते । अनादिकालीन विकल्पवासना के विचित्र परिपाक से ही अनेकानेक अर्थ प्रतिभासित होते हैं । वस्तुतः वे सब विभ्रमरूप ही हैं । इनके मत से किसी भी अर्थ और ज्ञानकी सत्ता नहीं है, जितना ग्राह्य ग्राहकाकार है वह सब भ्रान्त है । इसका खंडन करते हुए कलंकदेव ने लिखा है कि- 'स्वप्नादि विभ्रम की तरह समस्त ज्ञान विभ्रम रूप हैं' इस वाक्य का अर्थ विभ्रम रूप है, कि सत्य ? यदि उक्त वाक्य का अर्थ विभ्रम- मिथ्या है; तब तो सभी अर्थों की सत्ता अविभ्रम-सत्य सिद्ध हो जायगी । यदि उक्त वाक्य का अर्थ सत्य है; तो समस्त वस्तुएँ विभ्रमात्मक कहाँ हुई ? कम से कम उक्त वाक्य का अर्थ तो स्वरूप सत् हुआ । इसी तरह अन्य वस्तुएँ भी स्वरूप सत् सिद्ध होंगीं । संवेदनाद्वैतवाद निरसन - ज्ञानाद्वैतवादी मात्र ज्ञान की ही वास्तविक सत्ता मानते हैं बाह्यार्थ की नहीं । ज्ञान ही अनादिकालीन विकल्पवासना के कारण अनेकाकार रूप से प्रतिभासित होता है । जैसे इन्द्रजाल गन्धर्वनगर आदि में अविद्यमान भी कार प्रतिभासित होते हैं उसी तरह ज्ञान से भिन्न घटादि पदार्थ अपनी प्रातिभासिकी सत्ता रखते हैं पारमार्थिकी नहीं । इसी अभिन्नज्ञान में प्रमाण- प्रमेय आदि भेद कल्पित होते हैं, अतः यह ग्राह्य ग्राहकरूप से प्रतिभासित होता है । इसकी समालोचना करते हुए कलंकदेव लिखते हैं कि-तथोक्त अद्वयज्ञान स्वतः प्रतिभासित होता है, या परत: ? यदि स्वतः प्रतिभासित हो; तब तो विवाद ही नहीं होना चाहिए | आपकी तरह ब्रह्मवादी भी अपने ब्रह्म का भी स्वतः प्रतिभास ही तो कहते हैं । परतः प्रतिभास तो पर के बिना नहीं हो सकता । पर को स्वीकार करने पर द्वैतप्रसंग होगा । इन्द्रजालदृष्ट पदार्थ तथा बाह्यसत् पदार्थों में इत्तता मोटा भेद है कि उसमें स्त्रियाँ तथा ढोर चरानेवाले ग्वाले आदि मूढजन भी भ्रान्त नहीं हो सकते । वे बाह्यसत्य पदार्थों को ७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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