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प्रमेयनिरूपण] प्रस्तावना
७६ प्राप्तकर अपनी आकाँक्षाएँ शान्तकर सन्तोष का अनुभव करते हैं जब कि इन्द्रजालदृष्ट पदार्थों से कोई अर्थकिया या सन्तोषानुभव नहीं होता । वे तो प्रतिभासकाल में ही असत् मालूम होते हैं। अद्वयज्ञानवादियों को प्रतिभास की सामग्री-प्रतिपत्ता, प्रमाण, विचार
आदि तो मानना ही चाहिए, अन्यथा प्रतिभास कैसे हो सकेगा ? अद्वयज्ञान में अर्थअनर्थ, तत्त्व-अतत्त्व आदि की व्यवस्था न होने से तग्राही ज्ञानों में प्रमाणता या अग्रमाणता भी निश्चित नहीं की जा सकेगी । पर्वतादि बाह्य पदार्थों को विकल्पवासनाप्रसूत कहने से उनमें मूर्तत्व, स्थूलत्व, सप्रतिघत्व आदि धर्म कैसे संभव हो सकते हैं ? यदि विषादि पदार्थ बाह्यसत् नहीं हैं केवल ज्ञानरूप ही हैं; तब उनके खाने से मृत्यु आदि कैसे हो जाते हैं ? विष के ज्ञानमात्र से तो मृत्यु नहीं देखी जाती । प्रतिपाद्यरूप आत्मान्तर की सत्ता माने बिना शास्त्रोपदेश आदि का क्या उपयोग होगा ? जब परप्रतिपत्ति के उपायभूत वचन ही नहीं हैं; तब परप्रतिपादन कैसे संभव है ? इसी तरह ग्राह्य-ग्राहकभाव, बाध्य-बाधकभाव आदि अद्वैत के बाधक हैं । अद्वयसिद्धि के लिए साध्य-साधनभाव तो आप को मानना ही चाहिए; अन्यथा सहोपलम्भनियम आदि हेतुओं से अद्वयसिद्धि कैसे करोगे ? सहोपलम्भनियम-अर्थ और ज्ञान दोनों एक साथ उपलब्ध होते हैं अतः अर्थ और ज्ञान अभिन्न हैं, जैसे द्विचन्द्रज्ञान में प्रतिभासित होनेवाले दो चन्द्र वस्तुतः पृथक सत्ता नहीं रखते, किन्तु एक ही हैं ।' यह अनुमान भी संवेदनाद्वैत की सिद्धि करने में असमर्थ है । यतः सहोपलम्भ हेतु विरुद्ध है-'शिष्य के साथ गुरु अाया' इस प्रयोग में सहोपलम्भनियम भेद होने पर ही देखा गया है । ज्ञान अन्तरंग में चेतनाकारतया तथा अर्थ बाह्य देश में जडरूप से देखा जाता है अतः उनका सहोपलम्भनियम असिद्ध है । बाह्यसत् एकचन्द्र के स्वीकार किए बिना द्विचन्द्र दृष्टान्त भी नहीं बन सकता । सहोपलम्भनियम का भेद के साथ कोई विरोध नहीं होने के कारण वह अनैकान्तिक भी है ।
ज्ञानाद्वैतवादी बाह्यपदार्थ के अस्तित्व में निम्न बाधक उपस्थित करते हैं कि-एक परमाणु अन्यपरमाणुओं से एकदेश से संयोग करेगा, या सर्वात्मना ? एकदेश से संयोग मानने पर छह परमाणुओं से संयोग करनेवाले परमाणु के छह देश हो जायगे । सर्वात्मना संयोग मानने पर परमाणुओं का पिण्ड एकपरमाणुरूप हो जायगा। इसी तरह अवयवी अपने अवयवों में एकदेश से रहेगा, या सर्वात्मना ? एकदेश से रहने पर अवयवी के उतने ही देश मानने होंगे जितने कि अवयव हैं । सर्वात्मना प्रत्येक अवयव में रहने पर जितने अवयव हैं उतने ही अवयवी हो जायगे। अवयवी यदि निरंश है, तो रक्तारक्त, चलाचल, आदि विरुद्धधर्मों का अध्यास होने से उसमें भेद हो जायगा। इत्यादि ।
अकलंकदेव ने इनका समाधान संक्षेप में यह किया है कि जिस तरह एक ज्ञान अपने ग्राह्य, ग्राहक और संविदाकार से तादात्म्य रखकर भी एक रहता है, उसी तरह अवयवी अपने अवयवों में कथश्चित्तादात्म्य सम्बन्ध से रहने पर भी एक ही रहेगा । अवयवों से सर्वथा
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