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________________ अकलङ्कग्रन्थत्रय [प्रन्थ भिन्न अवयवी तो जैन भी नहीं मानते। परमाणुओं में परस्पर स्निग्धता और रूक्षता के कारण एक ऐसा विलक्षण सम्बन्ध होता है जिससे स्कन्ध बनता है। अतः ज्ञान के अतिरिक्त बाह्यपदार्थ की सत्ता मानना ही चाहिए; क्योंकि संसार के समस्त व्यवहार बाह्यसत् पदार्थों से चलते हैं, केवल ज्ञानमात्र से नहीं। परमाणुसंचयवाद निरास-सौत्रान्तिक ज्ञान से अतिरिक्त बाह्यार्थ मानते हैं, पर वे बाह्यार्थ को स्थिर, स्थूलरूप नहीं मानकर क्षणिक परमाणुरूप मानते हैं । परमाणुओं का पुंज ही अत्यन्त आसन्न होने के कारण स्थूलरूप से मालूम होता है। जैसे पृथक स्थित अनेक वृक्ष दूर से एक स्थूलरूप में प्रतिभासित होते हैं । अकलंकदेव इसका खंडन करते हुए लिखते हैं कि जब प्रत्येक परमाणु अतीन्द्रिय है और वह अपने परमाणुत्व को छोड़कर स्कन्ध अवस्था में नहीं आता तब उनका समुदाय प्रत्यक्ष का विषय कैसे हो सकेगा? अतीन्द्रिय वस्तुओं का समुदाय भी अपनी अतीन्द्रियता-सूक्ष्मता छोड़कर स्थूलता धारण किए बिना इन्द्रियगम्य नहीं हो सकता। भिन्नअवयविवाद निरास-नैयायिक अवयवी को अवयवों से भिन्न मानकर भी उसकी अवयवों में समवायसम्बन्ध से वृत्ति मानते हैं । वे अवयवी को निरंश एवं नित्य स्वीकार करते हैं । अकलंकदेव कहते हैं कि अवयवों से भिन्न कोई अवयवी प्रत्यक्षादि प्रमाणों का विषय नहीं होता । 'वृक्ष में शाखाएँ हैं। यह प्रतिभास तो होता है पर 'शाखाओं में वृक्ष है' यह एक निराली ही कल्पना है । यदि अवयवी अतिरिक्त हो; तो एक एक छटाक वजन वाले चार अवयवों से बने हुए स्कन्ध में अवयवों के चार छटाक वजन के अतिरिक्त कुछ अवयवी का भी वजन आना चाहिए। अवयव तथा अवयवी का रूप भी पृथक् पृथक् दिखना चाहिए। निरंश अवयवी के एक देश को रँगने पर पूरा अवयवी रँगा जाना चाहिए। उसके एक देश में क्रिया होने पर समस्त अवयवी में क्रिया होना चाहिए। उसके एक देश का आवरण होने पर पूरे अवयवी को आवृत हो जाना चाहिए । इस तरह विरुद्ध धर्मों का अध्यास होने से उसमें एकत्व नहीं रह सकता । अत: अवयवों से सर्वथा भिन्न अवयवी किसी भी तरह प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो सकता । इसलिए प्रतीति के अनुसार अवयवों से कथञ्चिद्भिन्न-अवयवरूप ही अवयवी मानना चाहिए । इस तरह गुण-पर्यायवाला, उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक पदार्थ ही प्रमाण का विषय होता है । गुण सहभावी तथा पर्याएँ क्रमभावी होते हैं । जैसे भेदज्ञान से वस्तु के उत्पाद और व्यय की प्रतीति होती है उसी तरह अभेदज्ञान से स्थिति भी प्रतिभासित होती ही है। जिस प्रकार सर्प अपनी सीधी, टेड़ी, उत्फण, विफण आदि अवस्थाओं में अनुस्यूत एक सत् है उसी तरह उत्पन्न और विलीन होनेवाली पर्यायों में द्रव्य अनुगत रहता है। अभिन्न प्रतिभास होने से वस्तु एक है । विरुद्ध धर्मों का अध्यास होने से अनेक है । वस्तु अमुक स्थूल अंश से प्रत्यक्ष होने पर भी अपनी सूक्ष्मपर्यायों की अपेक्षा से अप्रत्यक्ष रहती हैं । वस्तु के धौव्य अंश के For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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