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प्रमेयनिरूपण ] प्रस्तावना
८१ कारण ही 'स एवायम्' यह प्रत्यभिज्ञान होता है। उपादानोपादेयभाव भी ध्रौव्यांश के मानने पर ही बन सकता है। वस्तु जिस रूप से उत्तरपर्याय में अन्वित होगी उसी रूप से उसमें उपादानता का निश्चय होता है । यद्यपि शब्दादि का उपादान तथा आगे होनेवाला उपादेयभूत कार्य प्रत्यक्षगोचर नहीं है, तथापि उसकी मध्यक्षणवर्ती सत्ता ही उसके उपादान का तथा आगे होनेवाले उपादेयरूप कार्य का अनुमान कराती है; क्योंकि उपादान के बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती तथा मध्यक्षण यदि आगे कोई कार्य न करेगा; तो वह अर्थक्रियाकारित्व के अभाव में अवस्तु ही हो जायगा। अतः द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु ही प्रमाण का विषय हो सकती है।
सामान्य-नैयायिक-वैशेषिक नित्य, एक, सर्वगत सामान्य मानते हैं, जो स्वतन्त्र पदार्थ होकर भी द्रव्य, गुण और कर्म में समवायसम्बन्ध से रहता है । मीमांसक ऐसे ही सामान्य का व्यक्ति से तादात्म्य मानते हैं। बौद्ध सामान्य को वस्तुभूत न मानकर उसे अतद्वयावृत्ति या अन्यापोहरूप स्वीकार करते हैं । जैन सदृश परिणमन को सामान्य कहते हैं । वे उसे अनेकानुगत न कहकर व्यक्तिस्वरूप मानते हैं। वह व्यक्ति की तरह अनित्य तथा असर्वगत है। अकलंकदेव ने सामान्य का स्वरूप वर्णन करते हुए इतरमतों की आलोचना इस प्रकार की है
नित्य-सामान्यनिरास-नित्य, एक, निरंश सामान्य यदि सर्वगत है; तो उसे प्रत्येक व्यक्ति में खंडशः रहना होगा; क्योंकि एक ही वस्तु अनेक जगह युगपत् सर्वात्मना नहीं रह सकती। नित्य निरंश सामान्य जिस समय एक व्यक्ति में प्रकट होता है; उसी समय उसे सर्वत्र-व्यक्ति के अन्तराल में भी प्रकट होना चाहिये । अन्यथा व्यक्त और अव्यक्तरूप से खरूपभेद होने पर अनित्यत्व एवं सांशत्व का प्रसंग होगा । जिस तरह सामान्य, विशेष और समवाय भिन्न सत्ता के समवाय के बिना भी स्वतःसत् हैं उसी तरह द्रव्य, गुण और कर्म भी स्वतःसत् होकर 'सत् सत्' ऐसा अनुगत व्यवहार भी करा सकते हैं। अतः द्रव्यादि के खरूप से अतिरिक्त सामान्य न मानकर सदृशपरिणामरूप ही सामान्य मानना चाहिए ।
अन्यापोह निरास-बौद्ध सामान्य को अन्यापोहरूप मानते हैं। इनके मत से कोई भी एक वस्तु अनेक आधारों में वृत्ति ही नहीं रख सकती, अतः अनेक आधारों में वृत्ति रखनेवाला सामान्य असत् है। सामान्य अनुगत व्यवहार के लिए माना जाता है । उनका कहना है कि हमलोगों को परस्पर विभिन्न वस्तुओं के देखने के बाद जो बुद्धि में अभेद का भान होता है, उसी बुद्धि में प्रतिबिम्बित अभेद का नाम सामान्य है। वह बुद्धिप्रतिबिम्बित अभेद भी कोई विध्यात्मक धर्म नहीं है, किन्तु अतद्वयावृत्तिरूप है । जिन व्यक्तियों में अमनुष्यव्यावृत्ति पाई जाती है उनमें 'मनुष्य मनुष्य' व्यवहार किया जाता है । जैसे चक्षु, आलोक और रूप आदि पदार्थ परस्पर में अत्यन्त भिन्न होकर भी अरूपज्ञानजननव्या
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