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________________ अकलङ्कप्रन्थत्रय [प्रन्थ वृत्ति होने के कारण रूपज्ञानजनकरूप से समान व्यवहार में कारण हो जाते हैं, उसी तरह परस्पर में अत्यन्त भिन्न मनुष्यव्यक्तियाँ भी अमनुष्यव्यावृत्ति के कारण 'मनुष्य मनुष्य' ऐसा समान व्यवहार कर सकेंगी। इसी तरह अतत्कार्य-कारणव्यावृत्ति से अनुगत व्यवहार होता है। प्रकृत मनुष्यव्यक्तियाँ मनुष्य के कारणों से उत्पन्न हुई हैं तथा मनुष्य के कार्यों को करती हैं, अतः उनमें अमनुष्यकारणव्यावृत्ति तथा अमनुष्यकार्यव्यावृत्ति पाई जाती है, इसीसे उनमें किसी वस्तुभूत सामान्य के बिना भी सदृश व्यवहार हो जाता है। ___ अकलंकदेव इसका खंडन करते हैं कि-सदृशपरिणामरूप विध्यात्मक सामान्य के माने बिना अपोह का नियम ही नहीं हो सकता। जब एक शाबलेय गौव्यक्ति दूसरी बाहुलेय गौव्यक्ति से उतनी ही भिन्न है जितनी कि एक अश्वव्यक्ति से, तब क्या कारण है कि अगोव्यावृत्ति शाबलेय और बाहुलेय में ही 'गौ गौ' ऐसा अनुगत व्यवहार कराती है अश्व में नहीं ? अतः यह मानना होगा कि शाबलेय गौ बाहुलेय गौ से उतनी भिन्न नहीं है जितनी अश्व से, अर्थात् शाबलेय और बाहुलेय में कोई ऐसा सादृश्य है जो अश्व में नहीं पाया जाता। इसलिए सदृश परिणाम ही समान व्यवहार का नियामक हो सकता है। यह तो हम प्रत्यक्ष से ही देखते हैं कि-कोई वस्तु किसी से समान है तथा किसी से विलक्षण । बुद्धि समानधर्मों की अपेक्षा से अनुगत व्यवहार कराती है, तथा विलक्षण धर्मों की अपेक्षा से विसदृश व्यवहार । पर वह समानधर्म विध्यात्मक है निषेधात्मक नहीं। बौद्ध जब स्वयं अपरापरक्षणों में सादृश्य के कारण ही एकत्व का भान मानते हैं, शुक्तिका और चाँदी में सादृश्य के कारण ही भ्रमोत्पत्ति स्वीकार करते हैं; तब अनुगत व्यवहार के लिए अतद्यावृत्ति जैसी निषेधमुखी कल्पना से क्या लाभ ? क्योंकि उसका निर्वाह भी आखिर सदृशपरिणामके ही आधीन आ पड़ता है। बुद्धि में अभेद का प्रतिबिम्ब वस्तुगत सदृश धर्म के माने बिना यथार्थता नहीं पा सकता । अतः सदृशपरिणामरूप ही सामान्य मानना चाहिए । इस तरह अकलंकदेव ने सदृशपरिणामरूप तिर्यक्सामान्य, एकद्रव्यरूप ऊर्ध्वतासामान्य, भिन्नद्रव्यों में विलक्षण व्यवहार का प्रयोजक विशेष, और एक द्रव्य की दो पर्यायों में भेद व्यवहार करानेवाले पर्याय इन द्रव्य, पर्याय, सामान्य और विशेष चार पदों का उपादान करके प्रमाण के विषयभूत पदार्थ की सम्पूर्णता का प्रतिपादन किया है। भूतचैतन्यवाद निरास-चार्वाक का सिद्धान्त है कि-जीव कोई स्वतन्त्र मौलिक तत्त्व नहीं है किन्तु पृथिवी, जल, अग्नि और वायु के अमुक प्रमाण में विलक्षण रासायनिक मिश्रण से ही उन्हीं पृथिव्यादि में चैतन्यशक्ति आविर्भूत हो जाती है । इसी ज्ञानशक्तिविशिष्ट भूत-शरीर में जीव व्यवहार होता है। जिस प्रकार कोदों, महुआ आदि में जलादि का मिश्रण होने से मदिरा तैयार हो जाती है उसी तरह जीव एक रासायनिक मिश्रण से बना हुआ संयुक्त-द्रव्य है स्वतन्त्र अखण्ड मूल-द्रव्य नहीं है । उस मिश्रण में से अमुक तत्त्वों की कमी होने पर जीवनीशक्ति के नष्ट होने पर मृत्यु हो जाती है । अतः www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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