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________________ प्रमेयनिरूपण ] प्रस्तावना जीव गर्भ से लेकर मृत्यु पर्यन्त ही रहता है, परलोक तक जानेवाला नहीं है । उसकी शरीर के साथ ही साथ क्या शरीर के पहिले ही इतिश्री हो जाती है, शरीर तो मृत्यु के बाद भी पड़ा रहता है। "जलबुबुदवज्जीवाः, मदशक्तिवद्विज्ञानम्"-जल के बुबुदों की तरह जीव तथा महुआ आदि में मादकशक्ति की तरह ज्ञान उत्पन्न होता है-ये उनके मूल सिद्धान्तसूत्र हैं। अकलंकदेव इसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि-यदि आत्मा-जीव स्वतन्त्र मूल-तत्त्व न हो तो संसार और मोक्ष किसे होगा ? शरीरावस्था को प्राप्त पृथिव्यादि भूत तो इस लोक में ही भस्मीभूत हो जाते हैं, परलोक तक कौन जायगा ? परलोक का अभाव तो नहीं किया जा सकता; क्योंकि आज भी बहुत लोग जातिस्मरण होने से अपने पूर्वभव की तथ्यस्थिति का आंखोंदेखा हाल वर्णन करते हुए देखे जाते हैं । यक्ष, राक्षस, भूत पिशाचादि पर्यायों में पहुँचे हुए व्यक्ति अपनी वर्तमान तथा अतीतकालीन पूर्वपर्याय का समस्त वृत्तान्त सुनाते हैं । जन्म लेते ही नवजातशिशु को माँ के दूध पीने की अभिलाषा होती है। यह अभिलाषा पूर्वानुभाव के बिना नहीं हो सकती; क्योंकि अभिलाषा पूर्वदृष्ट पदार्थ की सुखसाधनता का स्मरण करके होती है । अत: पूर्वानुभव का स्थान परलोक मानना चाहिये । “गर्भ में माँ के द्वारा उपभुक्त भोजनादि से बने हुए अमुक विलक्षण रसविशेष के ग्रहण करने से नवजातशिशु को जन्म लेते ही दुग्धपान की ओर प्रवृत्ति होती है" यह कल्पना नितान्त युक्तिविरुद्ध है; क्योंकि गर्भ में रसविशेष के ग्रहण करने से ही यदि अभिलाषा होती है तो गर्भ में एक साथ रहनेवाले, एक साथ ही रसविशेष को ग्रहण करनेवाले युगल पुत्रों में परस्पर प्रत्यभिज्ञान एवं अभिलाषा होनी चाहिए, एक के द्वारा अनुभूत वस्तु का दूसरे को स्मरण होना चाहिए । प्रत्येक पृथिवी आदि भूत में तो चैतन्यशक्ति का आविर्भाव नहीं देखा जाता अतः समस्तभूतों के अमुक मिश्रण में ही जब एक विलक्षण अतीन्द्रिय स्वभावसिद्ध शक्ति माननी पड़ती है तब ऐसे विलक्षणशक्तिशाली अतीन्द्रिय आत्मतत्त्व के मानने में ही क्या बाधा है ? ज्ञान प्राणयुक्त शरीर का भी धर्म नहीं हो सकता; क्योंकि अन्धकार में शरीर का प्रत्यक्ष न होने पर भी 'अहं ज्ञानवान्' इस प्रकार से ज्ञान का अन्त: मानसप्रत्यक्ष होता है। यदि ज्ञानरूपसे शरीर का ग्रहण होता; तो कदाचित् ज्ञान शरीर का धर्म माना जाता। दूसरा व्यक्ति अपने नेत्रों से हमारे शरीर का ज्ञान कर लेता है पर शरीर के रूपादि की तरह वह हमारे ज्ञान का ज्ञान नहीं कर सकता । शरीर में विकार होने पर भी बुद्धि में विकार नहीं देखा जाता, शरीर की पुष्टि या कमजोरी में ज्ञान की पुष्टि या कमजोरी नहीं देखी जाती, शरीर के अतिशय बलवान् होने के साथ ही साथ बुद्विबल बढ़ता हुआ नहीं देखा जाता, इत्यादि कारणों से यह सुनिश्चित है कि-ज्ञान शरीर का गुण नहीं है । ज्ञानं, सुख आदि इन्द्रियों के भी धर्म नहीं हो सकते; क्योंकि चक्षुरादि इन्द्रियों की अनुपयुक्त दशा में मन से ही ' मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ' यह मानस प्रत्यक्ष अनुभव में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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