________________
अकलङ्कप्रन्थत्रय
[ ग्रन्थ
प्र ० - ' सर्वज्ञता आगमोक्तपदार्थों का यथार्थज्ञान एवं अभ्यास से होगी तथा आगम सर्वज्ञ के द्वारा कहा जायगा' इस तरह सर्वज्ञ और आगम दोनों ही अन्योन्याश्रित - एक दूसरे के आश्रित होने से प्रसिद्ध हैं ।
उ०- सर्वज्ञ आगम का कारक है । प्रकृत सर्वज्ञ का ज्ञान पूर्वसर्वज्ञ के द्वारा प्रतिपादित आगम के अर्थ के आचरण से उत्पन्न होता है, पूर्व आगम तत्पूर्व सर्वज्ञ के द्वारा कहा गया है । इस तरह बीजांकुर की तरह सर्वज्ञ और आगम की परंपरा अनादि मानी जाती है । अनादिपरम्परा में इतरेतराश्रय दोष का विचार अव्यवहार्य है ।
५६
प्र० - जब आजकल पुरुष प्रायः रागादि दोष से दूषित तथा अज्ञानी देखे जाते हैं, तब अतीतकाल में भी किसी अतीन्द्रियार्थद्रष्टा की संभावना नहीं की जा सकती और न भविष्यतकाल में ही ? क्योंकि पुरुषजाति की शक्तियाँ तीनों कालों में प्रायः समान ही रहती हैं; वे अपनी अमुक मर्यादा नहीं लाँघ सकतीं ।
उ०- यदि पुरुषातिशय को हम नहीं जान सकते तो इससे उसका प्रभाव नहीं होता । अन्यथा आजकल कोई वेद का पूर्णज्ञ नहीं देखा जाता अतः अतीतकाल में जैमिनि को भी उसका यथार्थ ज्ञान नहीं था यह कहना चाहिये । बुद्धि में तारतम्य होने से उसके प्रकर्ष की संभावना तो है ही । जैसे मलिन सुवर्ण अग्नि के ताप से क्रमशः पूर्ण निर्मल हो जाता है, उसी तरह सम्यग्दर्शनादि के अभ्यास से आत्मा भी पूर्णरूपसे निर्मल हो सकता है ।
प्र० - जब सर्वज्ञ रागी आत्मा के राग तथा दुःखी के दुःख का साक्षात्कार करता है तब तो वह स्वयं रागी तथा दुःखी हो जायगा ।
उ०- दुःख या राग को जाननेमात्रसे कोई दुःखी या रागी नहीं होता । राग तो आत्मा का स्वयं तद्रूप से परिणमन करने पर होता है । क्या कोई श्रोत्रिय ब्राह्मण मदिरा
रस का ज्ञान करनेमात्र से मद्यपायी कहा जा सकता है ? राग के कारण मोहनीय आदि कर्म सर्वज्ञ से अत्यन्त उच्छिन्न हो गए हैं, अतः वे राग या दुःख को जाननेमात्र से रागी या दुःखी नहीं हो सकते ।
प्र० - जब सर्वज्ञ के साधक और बाधक दोनों प्रकार के प्रमाण नहीं मिलते, तो उसकी सत्ता संदिग्ध ही कहना चाहिए ।
उ०- साधक प्रमाण पहिले बता आए हैं तथा बाधकों का परिहार भी किया जा चुका है तब संदेह क्यों हो ? सर्वज्ञ के प्रभाव का साधन तो सर्वज्ञ हुए बिना किया ही नहीं जा सकता । जब हम त्रिकाल - त्रिलोकवर्ती यावत्पुरुषों का सर्वज्ञरूप में दर्शन कर सकेंगे तभी सर्वज्ञता सिद्ध की जा सकती है । पर ऐसी सर्वज्ञता सिद्ध करनेवाला व्यक्ति स्वयं अनायास ही सर्वज्ञ बन जायगा ।
धर्मकीर्त्ति ने बुद्ध को करुणावान् तथा हेयोपादेय तत्त्व का उपदेष्टा कहा है। कलंक कहते हैं कि - जब आप समस्तधर्मों के आधारभूत आत्मा को ही नहीं मानते तब किस पर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org