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________________ प्रमाणनिरूपण ] प्रस्तावना करुणा की जायगी तथा कौन करुणा करेगा ? कौन उसका अनुष्ठान करेगा ? ज्ञानक्षण तो परस्पर भिन्न हैं, अतः भावना किसी अन्यज्ञानक्षण को होगी तो मुक्ति किसी दूसरे ज्ञानक्षण को। दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग ये चार आर्यसत्य तो तब ठीक हो सकते हैं जब दुःखादि के अनुभव करनेवाले आत्मा को स्वीकार किया जाय। इस तरह जीव जिसे संसार होता है तथा जो मुक्त होता है, अजीव जिसके सम्बन्ध से दुःख होता है, इन दो आधारभूत तत्त्वों को माने बिना तत्त्वसंख्या की पूर्णता नहीं हो सकती। दुःख को जैन लोग बन्ध तथा समुदय को आश्रव शब्द से कहते हैं । निरोध को मोक्ष तथा मार्ग को संवर और निर्जरा शब्द से कहते हैं । अतः चार आर्यसत्य के साथ जीव और अजीव इन दो मूल तत्त्वों को मानना ही चाहिये । जीव और अजीव इन दो मूल तत्त्वों के अनादिकालीन सम्बन्ध से ही दुःख आदि की सृष्टि होती है। बुद्ध ने हिंसा का भी उपदेश दिया है अतः मालूम होता है कि वे यथार्थदर्शी नहीं थे । इत्यादि । सद् अात्मा को हेय कहना, निरोध को जो असद्रूप है उपादेय कहना, उसके कारणों का उपदेश देना तथा असत् की प्राप्ति के लिए यत्न करना ये सब बातें उनकी असर्वज्ञता का दिग्दर्शन कराने के लिए पर्याप्त हैं । अकलंक के द्वारा बुद्ध के प्रति किए गए अकरुणावत्त्व आदि आक्षेपों के लिए उस समय की साम्प्रदायिक परिस्थिति ही जबाबदेह है, क्योंकि कुमारिल और धर्मकीर्ति आदि ने जैनों के ऊपर भी ऐसे ही कल्पित आक्षेप किए हैं। परोक्ष-अकलङ्कदेव ने तत्त्वार्थसूत्रकार के द्वारा निर्दिष्ट परोक्षज्ञानों में मतिज्ञान-मति स्मृत्यादि ज्ञानों को नामयोजना के पहिले सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष कहकर नाम योजना होने पर उन्हीं ज्ञानों को श्रुतव्यपदेश दिया है और श्रुत को अस्पष्ट होने से परोक्ष कहा है। अर्थात् परोक्षज्ञान के स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध तथा श्रुत-आगम ये पाँच भेद हुए । अकलंकदेव ने राजवार्तिक में अनुमान आदि ज्ञानों को खप्रतिपत्तिकाल में (नामयोजना से पहिले) अनक्षरश्रुत तथा परप्रतिपत्तिकाल में अक्षरश्रुत कहा है । लघीयस्त्रय में मति ( इन्द्रियानिन्द्रियजप्रत्यक्ष) को नामयोजना के पहिले मतिज्ञान एवं सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष तथा शब्दयोजना के बाद उसे ही श्रुत कहना उनके समन्वय करने के उत्कट यत्न की ओर ध्यान खींचता है, और इससे यह भी मालूम होता है किलघीयस्त्रय बनाते समय वेअपनी योजना को दृढ़ नहीं कर सके थे; क्योंकि उनने लघीयस्त्रय में मति स्मृति आदि को अवस्थाविशेष में मतिज्ञान लिखने परभीन्यायविनिश्चय में स्मरणादि ज्ञानों के ऐकान्तिक श्रुतत्व-परोक्षत्व का विधान किया है । स्मृति-स्मरण को कोई वादी गृहीतग्राही होने से तथा कोई अर्थ से उत्पन्न न होने के कारण अप्रमाण कहते आए हैं। पर अकलंकदेव कहते हैं कि यद्यपि स्मरण गृहीतग्राही है फिर भी अविसंवादी होने से प्रमाण ही होना चाहिये। वह अविसंवादी प्रत्यभिज्ञान का जनक भी है। स्मृति समारोप का व्यवच्छेद करने वाली है, अतः उसे प्रमाण मानने में कोई विरोध नहीं होना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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