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________________ प्रमाणनिरूपण ] प्रस्तावना ५५ उसी तरह अतीन्द्रियज्ञान स्पष्ट भासक होता है। इस तरह साधक प्रमाणों को बताकर उन्होंने जो एक खास हेतु का प्रयोग किया है, वह है-'सुनिश्चितासम्भवद्बाधकप्रमाणत्व' अर्थात् किसी भी वस्तु की सत्ता सिद्ध करने के लिए सबसे बड़ा प्रमाण यही हो सकता है कि उसकी सत्ता में कोई बाधक प्रमाण नहीं मिले। जैसे 'मैं सुखी हूँ' यहाँ सुख का साधक प्रमाण यही है कि मेरे सुखी होने में कोई बाधक प्रमाण नहीं है । चूँकि सर्वज्ञ की सत्ता में कोई भी बाधक प्रमाण नहीं है, अतः उसकी निर्बाध सत्ता होनी चाहिए। इस हेतु के समर्थनार्थ उन्होंने विरोधियों के द्वारा कल्पित बाधकों का निराकरण इस प्रकार किया है प्र०--'अर्हन्त सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि वह वक्ता है, पुरुष है, जैसे कोई भी गली में घूमने वाला साधारण मनुष्य' यह अनुमान बाधक है । उ०-वक्तृत्व और सर्वज्ञत्व का कोई विरोध नहीं है, वक्ता भी हो सकता है और सर्वज्ञ भी। ज्ञान की बढ़ती में वचनों का ह्रास नहीं होता । प्र०-वक्तृत्व विवक्षा से सम्बन्ध रखता है, अतः इच्छारहित निर्मोही सर्वज्ञ में वचनों की संभावना ही कैसे है ? शब्दोच्चारण की इच्छा तो मोह की पर्याय है। उ०-विवक्षा के साथ वक्तृत्व का कोई अविनाभाव नहीं है । मन्दबुद्धि शास्त्रविवक्षा रखते हैं, पर शास्त्र का व्याख्यान नहीं कर सकते । सुषुप्तादि अवस्थाओं में वचन देखे जाते हैं पर विवक्षा नहीं है । अतः वचनप्रवृत्ति में चैतन्य तथा इन्द्रियों की पटुता कारण है । लेकिन उनका सर्वज्ञता के साथ कोई विरोध नहीं है । अथवा, वचन विवक्षाहेतुक मान भी लिए जायँ पर सत्य और हितकारक वचन की प्रवृत्ति कराने वाली विवक्षा दोषवाली कैसे हो सकती है ? इसी तरह निर्दोष बीतराग पुरुषत्व सर्वज्ञता के साथ कोई विरोध नहीं रखता। अतः इन व्यभिचारी हेतुओं से साध्यसिद्धि नहीं हो सकती; अन्यथा 'जैमिनि को यथार्थ वेदज्ञान नहीं है, क्योंकि वह वक्ता है एवं पुरुष है' इस अनुमान से जैमिनि की वेदार्थज्ञता का भी निषेध भलीभाँति किया जा सकता है । प्र०-आजकल हमें किसी भी प्रमाण से सर्वज्ञ उपलब्ध नहीं होता, अतः अनुपलम्भ होने से उसका अभाव ही मानना चाहिए । - उ०-पूर्वोक्त अनुमानों से सर्वज्ञ की सिद्धि होती है, अतः अनुपलम्भ तो नहीं कहा जा सकता । यह अनुपलम्भ आपको है, या संसार के समस्त जीवों को ? आपको तो इस समय हमारे चित्त में आने वाले विचारों की भी अनुपलब्धि है पर इससे उनका अभाव तो सिद्ध नहीं किया जा सकता। अतः स्वोपलम्भ अनैकान्तिक है । 'सबको सर्वज्ञका अनुपलम्भ है' यह बात तो सबके ज्ञानों का ज्ञान होने पर ही सिद्ध हो सकती है । और यदि किसी पुरुष को समस्त प्राणियों के ज्ञान का ज्ञान हो सके; तब तो वही पुरुष सर्वज्ञ हो जायगा। यदि समस्तजीवों के ज्ञान का ज्ञान नहीं हो सके; तब तो 'सबको सर्वज्ञ का अनुपलम्भ है' यह बात असिद्ध ही रह जायगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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