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________________ ५४ अकलङ्कग्रन्थत्रय [ग्रन्थ तरह सर्वज्ञता के लिए भी यत्न करें। जिनने बीतरागता प्राप्त कर ली है वे चाहें तो थोड़े से प्रयत्न से ही सर्वज्ञ बन सकते हैं। शान्तरक्षित भी इसी तरह धर्मज्ञता साधन के साथ ही साथ सर्वज्ञता सिद्ध करते हैं और इस सर्वज्ञता को वे शक्तिरूप से सभी बीतरागों में मानते हैं । प्रत्येक बीतराग जब चाहें तब जिस किसी भी वस्तु को अनायास ही जान सकते हैं । योग तथा वैशेषिक के सिद्धान्त में यह सर्वज्ञता अणिमा आदि ऋद्धियों की तरह एक विभूति है जो सभी बीतरागों के लिए अवश्य प्राप्तव्य नहीं है। हाँ, जो इसकी साधना करेगा उसे यह प्राप्त हो सकती है । जैन तार्किकों ने प्रारम्भ से ही त्रिकाल-त्रिलोकवर्ती यावज्ज्ञेयों के प्रत्यक्षदर्शन रूप अर्थ में सर्वज्ञता मानी है और उसका समर्थन भी किया है। यद्यपि तर्कयुग के पहिले 'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ'-जो एक आत्मा को जानता है वह सर्व पदार्थों को जानता है इत्यादि वाक्य जो सर्वज्ञता के मुख्य साधक नहीं हैं, पाए जाते हैं; पर तर्कयुग में इनका जैसा चाहिए वैसा उपयोग नहीं हुआ। समन्तभद्र आदि प्राचार्यों ने सूक्ष्म, अन्तरित तथा दूरवर्ती पदार्थों का प्रत्यक्षत्व अनुमेयत्व हेतु से सिद्ध किया है । ज्ञान आत्मा का स्वभाव है, जब दोष और आवरण का समूल क्षय हो जायगा तब ज्ञान अनायास ही अपने पूर्णरूप में प्रकट होकर सम्पूर्ण अर्थ का साक्षात्कार करेगा । बौद्धों की तरह किसी भी जैनतर्कग्रन्थ में धर्मज्ञता और सर्वज्ञता का विभाजन कर उनमें गौण-मुख्यभाव नहीं बताया गया है। सभी जैनतार्किकों ने एकस्वरसे त्रिलोकत्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों के पूर्णपरिज्ञान अर्थ में सर्वज्ञता का समर्थन किया है । धर्मज्ञता तो उक्त पूर्णसर्वज्ञता के गर्भ में ही निहित मान ली गई है। ____ अकलंकदेव ने सर्वज्ञता तथा मुख्यप्रत्यक्ष के समर्थन के साथ ही साथ धर्मकीर्ति के उन विचारों का खूब समालोचन किया है जिनमें बुद्ध को करुणावान् , शास्ता, तायि, तथा चातुरार्यसत्य का उपदेष्टा बताया है । साथ ही सर्वज्ञाभाव के विशिष्ट समर्थक कुमारिल की युक्तियों का खंडन किया है। वे लिखते हैं कि-आत्मा में सर्वपदार्थों के जानने की पूर्ण सामर्थ्य है। संसारी अवस्था में मल-ज्ञानावरण से आवृत होने के कारण उसका पूर्ण प्रकाश नहीं हो पाता पर जब चैतन्य के प्रतिबन्धक कर्म का पूर्ण क्षय हो जाता है, तब उस अप्राप्यकारी ज्ञान को समस्त अर्थों को जानने में क्या बाधा है ? यदि अतीन्द्रियपदार्थों का ज्ञान न हो सके तो ज्योतिग्रहों की ग्रहण आदि भविष्यद्दशाओं का जो अनागत होने से अतीन्द्रिय हैं, उपदेश कैसे होगा ? ज्योर्तिज्ञानोपदेश यथार्थ देखा जाता है, अत: यह मानना ही चाहिए कि उसका यथार्थ उपदेश साक्षाद्दष्टा माने बिना नहीं हो सकता । जैसे सत्यस्वप्नदर्शन इन्द्रियादि की सहायता के बिना ही भाविराज्यलाभादि का यथार्थ स्पष्ट ज्ञान कराता है तथा विशद है उसी तरह सर्वज्ञ का ज्ञान भी भाविपदार्थों में संवादक तथा स्पष्ट है। जैसे प्रश्न या ईक्षणिकादिविद्या अतीन्द्रिय पदार्थों का स्पष्ट भान करा देती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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