________________
प्रमाणनिरूपण ]
प्रस्तावना स्वसंवेदनप्रत्यक्ष खण्डन-यदि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष निर्विकल्पक है तब तो स्वाप तथा मूर्छादि अवस्थाओं में ऐसे निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को मानने में क्या बाधा है ? सुषुप्ताद्यवस्थाओं में अनुभवसिद्ध ज्ञान का निषेध तो किया ही नहीं जा सकता। यदि उक्त अवस्थाओं में ज्ञान का अभाव हो तो उस समय योगियों को चतुःसत्यविषयक भावनाओं का भी विच्छेद मानना पड़ेगा।
बौद्धसम्मत विकल्प के लक्षण का निरास-बौर 'अभिलापवती प्रतीतिः कल्पना' अर्थात् जो ज्ञान शब्दसंसर्ग के योग्य हो उस ज्ञान को कल्पना या विकल्पज्ञान कहते हैं। अकलंकदेव ने उनके इस लक्षण का खण्डन करते हुए लिखा है कि यदि शब्द के द्वारा कहे जाने लायक ज्ञान का नाम कल्पना है तथा बिना शब्दसंश्रय के कोई भी विकल्पज्ञान उत्पन्न ही नहीं हो सकता; तब शब्द तथा शब्दांशों के स्मरणात्मक विकल्प के लिए तद्वाचक अन्य शब्दों का प्रयोग मानना होगा, उन अन्यशब्दों के स्मरण के लिए भी तद्वाचक अन्यशब्द स्वीकार करना होंगें, इस तरह दूसरे दूसरे शब्दों की कल्पना करने से अनवस्था नाम का दूषण होगा। अतः जब विकल्पज्ञान ही सिद्ध नहीं हो पाता; तब विकल्पज्ञानरूप साधक के अभाव में निर्विकल्पक भी असिद्ध ही रह जायगा और निर्विकल्पक तथा सविकल्पक रूप प्रमाणद्वय के अभाव में सकल प्रमेय का भी साधक प्रमाण न होने से प्रभाव ही प्राप्त होगा। यदि शब्द तथा शब्दांशों का स्मरणात्मक विकल्प तद्वाचक शब्दप्रयोग के बिना ही हो जाय; तब तो विकल्प का अभिलापवत्त्व लक्षण अव्याप्त हो जायगा । और जिस तरह शब्द तथा शब्दांशों का स्मरणात्मक विकल्प तद्वाचक अन्य शब्द के प्रयोग के बिना ही हो जाता है । उसी तरह 'नीलमिदम्' इत्यादि विकल्प भी शब्दप्रयोग की योग्यता के बिना ही हो जायगे, तथा चक्षुरादिबुद्धियाँ शब्दप्रयोग के बिना ही नीलपीतादि पदार्थों का निश्चय करने के कारण स्वतः व्यवसायात्मक सिद्ध हो जायगी । अतः विकल्प का अभिलापवत्त्व लक्षण दूषित है । विकल्प का निर्दोष लक्षण है-समारोपविरोधीग्रहण या निश्चयात्मकत्व ।
सांख्य-श्रोत्रादि इन्द्रियों की वृत्तियों को प्रत्यक्षप्रमाण मानते हैं। अकलंक देव कहते हैं कि-श्रोत्रादि इन्द्रियों की वृत्तियाँ तो तैमिरिक रोगी को होने वाले द्विचन्द्रज्ञान तथा अन्य संशयादि ज्ञानों में भी प्रयोजक होती हैं, पर वे सभी ज्ञान प्रमाण तो नहीं हैं।
नैयायिक-इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं । इसे भी अकलंकदेव ने सर्वज्ञ के ज्ञान में अव्याप्त बताते हुए लिखा है कि-त्रिकाल-त्रिलोकवर्ती यावत् पदार्थों को विषय करने वाला सर्वज्ञ का ज्ञान प्रतिनियतशक्तिवाली इन्द्रियों से तो उत्पन्न नहीं हो सकता, पर प्रत्यक्ष तो अवश्य है । अतः सन्निकर्ष अव्याप्त है।
सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष-चार प्रकार का है-१ अवग्रह, २ ईहा, ३ अवाय, ४ धारणा । प्रत्यक्षज्ञान की उत्पत्ति का साधारण क्रम यह है कि-सर्वप्रथम इन्द्रिय और पदार्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org