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________________ अकलङ्कग्रन्थत्रय [प्रन्थ का योग्यदेशस्थितिरूप सम्बन्ध ( सन्निकर्ष), ततः सामान्यावलोकन (निर्विकल्पक), ततः अवग्रह (सविकल्पक ज्ञान), ततः ईहा (विशेष जिज्ञासा), ततः अवाय (विशेष निश्चय), अन्त में धारणा (संस्कार)। सामान्यावलोकन से धारणापर्यन्त ज्ञान चाहे एक ही मत्युपयोगरूप माने जाँय या पृथक् पृथक् उपयोगरूप, दोनों अवस्थाओं में अनुस्यूत आत्मा की सत्ता तो मानना ही होगी, अन्यथा 'जो मैं देखने वाला हूँ, वही मैं अवग्रह तथा ईहादि ज्ञानवाला हूँ, वही मैं धारण करता हूँ' यह अनुभवसिद्ध प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकेगा। इसी दृष्टि से अकलंकदेव ने दर्शन की अवग्रहरूप परिणति, अवग्रह की ईहारूप, ईहा की अवायरूप तथा अवाय की धारणारूप परिणति स्वीकार की है। अन्वित आत्मदृष्टिसे अभेद होने पर भी इन ज्ञानों में पर्याय की दृष्टिसे तो भेद है ही। ईहा और धारणा की ज्ञानात्मकता-वैशेषिक ईहा को प्रयत्न नाम का पृथक् गुण तथा धारणा को भावनासंस्कार नामक पृथक् गुण मानते हैं । अकलंकदेव ने इन्हें एक चैतन्यात्मक उपयोग की अवस्था होने के कारण ज्ञानात्मक ही कहा है, ज्ञान से पृथक् स्वतन्त्र गुणरूप नहीं माना है । अवग्रहादि का परस्पर प्रमाण-फलभाव-ज्ञान के साधकतम अंश को प्रमाण तथा प्रमित्यंश को फल कहते हैं । प्रकृत ज्ञानों में अवग्रह ईहा के प्रति साधकतम होने से प्रमाण है, ईहा प्रमारूप होने से उसका फल है । इसी तरह ईहा की प्रमाणता में अवाय फल है तथा अवाय को प्रमाण मानने पर धारणा फलरूप होती है। तात्पर्य यह कि-पूर्वपूर्वज्ञान साधकतम होने से प्रमाण हैं तथा उत्तरोत्तरज्ञान प्रमितिरूप होने से फलरूप हैं । प्रमाणफलभाव का ऐसा ही क्रम वैशेषिकादि अन्य दर्शनों में भी पाया जाता है। मुख्य प्रत्यक्ष-इन्द्रिय और मन की अपेक्षा के बिना होने वाले, अतीन्द्रिय, व्यवसायात्मक, विशद, सत्य, अव्यवहित, अलौकिक, अशेष पदार्थों को विषय करने वाले, अक्रम ज्ञान को मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं । वह सकल और विकल के भेद से दो प्रकार का है । सकलप्रत्यक्ष केवलज्ञान है । अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान अमुक पदार्थों को विषय करने के कारण विकलप्रत्यक्ष हैं । सर्वज्ञत्व विचार-प्राचीनकाल में भारतवर्ष की परम्परा के अनुसार सर्वज्ञता का सम्बन्ध भी मोक्ष के ही साथ था। मुमुक्षुओं में विचारणीय विषय तो यह था किमोक्ष के मार्ग का किसने साक्षात्कार किया है ? इसी मोक्षमार्ग को धर्म शब्दसे कहते हैं। अतः 'धर्म का साक्षात्कार हो सकता है या नहीं ?' इस विषय में विवाद था। एक पक्ष का, जिसके अनुगामी शबर, कुमारिल आदि मीमांसक हैं, कहना था कि-धर्म जैसी अतीन्द्रिय वस्तु को हम लोग प्रत्यक्ष से नहीं जान सकते, उसमें तो वेद का ही निर्बाध अधिकार है। धर्म की परिभाषा भी 'चोदनालक्षणोऽर्थः धर्मः' करके धर्म में चोदना-वेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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