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अकलङ्कग्रन्थत्रय
[प्रन्थ से विकल्पज्ञान अप्रमाण है; तब तो अनुमान भी प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत क्षणिकत्वादि को विषय करने के कारण प्रमाण नहीं हो सकेगा। निर्विकल्प से जिस प्रकार नीलाघशों में 'नीलमिदम्' इत्यादि विकल्प उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार क्षणिकत्वादि अंशों में भी 'क्षणिकमिदम्' इत्यादि विकल्पज्ञान उत्पन्न होना चाहिए । अतः व्यवहारसाधक सविकल्पज्ञान ही प्रत्यक्ष कहा जाने योग्य है । विकल्पज्ञान ही विशदरूप से हर एक प्राणी के अनुभव में आता है, जब कि निर्विकल्पज्ञान अनुभवसिद्ध नहीं है । प्रत्यक्ष से तो स्थिर स्थूल अर्थ ही अनुभव में आते हैं, अतः क्षणिक परमाणु का प्रतिभास कहना प्रत्यक्षविरुद्ध है। निर्विकल्पक को स्पष्ट होने से तथा सविकल्प को अस्पष्ट होने से विषयभेद मानना भी ठीक नही है; क्योंकि एक ही वृक्ष दूरवर्ती पुरुष को अस्पष्ट तथा समीपवर्ती को स्पष्ट दीखता है । आद्यप्रत्यक्षकाल में भी कल्पनाएँ बराबर उत्पन्न तथा विनष्ट तो होती ही रहती हैं, भले ही वे अनुपलक्षित रहें । निर्विकल्प से सविकल्पक की उत्पत्ति मानना भी ठीक नही है; क्योंकि यदि अशब्द निर्विकल्पक से सशब्द विकल्पज्ञान उत्पन्न हो; तो शब्दशून्य अर्थ से ही विकल्प की उत्पत्ति मानने में क्या बाधा है ? अतः मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्तादि यावद्विकल्पज्ञान संवादी होने से प्रमाण हैं । जहाँ ये विसंवादी हों वहीं इन्हें अप्रमाण कह सकते हैं। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में अर्थक्रियास्थिति-अर्थात् अर्थक्रियासाधकत्व रूप अविसंवाद का लक्षण भी नहीं पाया जाता, अतः उसे प्रमाण कैसे कह सकते हैं ? शब्दसंसृष्ट ज्ञान को विकल्प मानकर अप्रमाण कहने से शास्त्रोपदेश से क्षणिकत्वादि की सिद्धि नहीं हो सकेगी।
मानसप्रत्यक्ष निरास-बौद्ध इन्द्रियज्ञान के अनन्तर उत्पन्न होने वाले विशद ज्ञान को, जो कि उसी इन्द्रियज्ञान के द्वारा ग्राह्य अर्थ के अनन्तरभावी द्वितीयक्षण को जानता है, मानस प्रत्यक्ष कहते हैं । अकलंकदेव कहते हैं कि-एक ही निश्चयात्मक अर्थसाक्षात्कारी ज्ञान अनुभव में आता है । आपके द्वारा बताए गए मानस प्रत्यक्ष का तो प्रतिभास ही नहीं होता । ' नीलमिदम् ' यह विकल्पज्ञान भी मानसप्रत्यक्ष का असाधक है; क्योंकि ऐसा विकल्पज्ञान तो इन्द्रियप्रत्यक्ष से ही उत्पन्न हो सकता है, इसके लिए मानसप्रत्यक्ष मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । बड़ी और गरम जलेबी खाते समय जितनी इन्द्रियबुद्धियाँ उत्पन्न होती हैं उतने ही तदनन्तरभावी अर्थ को विषय करनेवाले मानस प्रत्यक्ष मानना होंगें; क्योंकि बाद में उतने ही प्रकार के विकल्पज्ञान उत्पन्न होते हैं । इस तरह अनेक मानसप्रत्यक्ष मानने पर सन्तानभेद हो जाने के कारण 'जो मैं खाने वाला हूँ वही मैं सूंघ रहा हूँ' यह प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकेगा। यदि समस्त रूपादि को विषय करने वाला एक ही मानसप्रत्यक्ष माना जाय; तब तो उसीसे रूपादि का परिज्ञान भी हो ही जायगा, फिर इन्द्रियबुद्धियाँ किस लिए स्वीकार की जायँ ? धर्मोत्तर ने मानसप्रत्यक्ष को आगमप्रसिद्ध कहा है । अकलंक ने उसकी भी समालोचना की है कि जब वह मात्र आगमप्रसिद्ध ही है; तब उसके लक्षण का परीक्षण ही निरर्थक है ।
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