SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणनिरूपण ] प्रस्तावना ४६ तथा सत्तात्मक महासामान्य का आलोचन करने वाले अनाकार दर्शन के समान है । अकलंकदेव की दृष्टि में जब निर्विकल्पकदर्शन प्रमाणकोटि से ही बहिर्भूत है तब उसे प्रत्यक्ष तो कहा ही नहीं जा सकता । इसी बात की सूचना के लिए उन्होंने प्रत्यक्ष के लक्षण में साकार पद रखा, जो निराकारदर्शन तथा बौद्धसम्मत निर्विकल्पप्रत्यक्ष का निराकरण कर निश्चयात्मक विशद ज्ञान को ही प्रत्यक्षकोटि में रखता है । बौद्ध निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के बाद होनेवाले 'नीलमिदम्' इत्यादि प्रत्यक्षज विकल्पों को भी संव्यवहार से प्रमाण मान लेते हैं । इसका मूल यह है कि प्रत्यक्ष के विषयभूत दृश्य-स्वलक्षण में विकल्प के विषयभूत विकल्प्यसामान्य का आरोपरूप एकत्वाध्यवसाय करके प्रवृत्ति करने पर स्वलक्षण ही प्राप्त होता है। अतः विकल्पज्ञान संव्यवहार से विशद है । इसका निराकरण करने के लिए अकलंकदेव ने 'अञ्जसा' पद का उपादान करके सूचित किया कि विकल्पज्ञान संव्यवहार से नहीं किन्तु अंजसा-परमार्थरूपसे विशद है। अनुमान आदि ज्ञानों से अधिक विशेषप्रतिभास का नाम वैशद्य है। जिस तरह अनुमान आदि ज्ञान अपनी उत्पत्ति में लिंगज्ञान आदि ज्ञानान्तर की अपेक्षा करते हैं उस तरह प्रत्यक्ष अपनी उत्पत्ति में किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं रखता, यही अनुमानादि से प्रत्यक्ष में अतिरेक-अधिकता है । अकलंकदेव ने इतरवादिसम्मत प्रत्यक्षलक्षणों का निराकरण इस प्रकार किया है बौद्ध-जिसमें शब्दसंसर्ग की योग्यता नहीं है ऐसे निर्विकल्पकज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं सविकल्पज्ञान को नहीं, क्योंकि विकल्पज्ञान अर्थ के अभाव में भी उत्पन्न होता है । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के द्वारा यद्यपि अर्थ में रहने वाले क्षणिकत्वादि सभी धर्मों का अनुभव हो जाता है, पर वह नीलादि अंशों में 'नीलमिदम्' इत्यादि विकल्पज्ञान के द्वारा व्यवहारसाधक होता है, तथा क्षणिकत्वादि अंशों में यथासंभव अनुमानादि विकल्पों द्वारा । अत: निर्विकल्पक 'नीलमिदम्' इत्यादि विकल्पों का उत्पादक होने से तथा अर्थस्वलक्षण से उत्पन्न होने के कारण प्रमाण है। विकल्पज्ञान अस्पष्ट है; क्योंकि वह परमार्थसत् स्वलक्षण से उत्पन्न नहीं होता । सर्वप्रथम अर्थ से निर्विकल्प ही उत्पन्न होता है। निर्विकल्पक में असाधारण क्षणिक परमाणुओं का प्रतिभास होता है । उस निर्विकल्पक अवस्था में कोई भी विकल्प अनुभव में नहीं आता। विकल्पज्ञान कल्पितसामान्य को विषय करने के कारण तथा निर्विकल्पक के द्वारा गृहीत अर्थ को ग्रहण करने के कारण प्रत्यक्षाभास है। अकलंकदेव इसका निराकरण इस तरह करते हैं-अर्थक्रियार्थी पुरुष प्रमाण का अन्वेषण करते हैं। जब व्यवहार में साक्षात् अर्थक्रियासाधकता सविकल्पज्ञान में ही है तब क्यों न उसे ही प्रमाण माना जाय ? निर्विकल्पक में प्रमाणता लाने को आखिर आपको सविकल्पज्ञान तो मानना ही पड़ता है। यदि निर्विकल्प के द्वारा गृहीत नीलाद्यश को विषय करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy