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अकलङ्कप्रन्थत्रय
[प्रन्थ
मिकपरम्परा में स्पष्टरूपसे परोक्ष हैं। पर लोकव्यवहार तथा दर्शनान्तरों में इन्द्रियान्द्रियजज्ञान प्रत्यक्षरूपसे ही प्रसिद्ध तथा व्यवहृत होते हैं। यद्यपि अकलंकदेव के पहिले
आ० सिद्धसेन दिवाकर ने अपने न्यायावतार में प्रत्यक्ष, अनुमान तथा शब्द इन तीन प्रमाणों का कथन किया है, पर प्रमाणों की व्यावर्तक संख्या अभी तक अनिश्चितसी ही रही है । अकलंकदेव ने सूत्रकार की परम्परा की रक्षा करते हुए लिखा है कि-मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध ज्ञान शब्दयोजना से पहिले मतिज्ञान तथा शब्दयोजना के अनन्तर श्रुतज्ञान कहे जाँय । श्रुतज्ञान परोक्ष कहा जाय । मतिज्ञान में अन्तर्भूत मति-इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्ष को लोकव्यवहार में प्रत्यक्षरूपसे प्रसिद्ध होने के कारण तथा वैशद्यांश का सद्भाव होने से संव्यवहारप्रत्यक्ष कहा जाय । प्रत्यक्ष के इन्द्रियप्रत्यक्ष, अनिन्द्रियप्रत्यक्ष और अतीन्द्रियप्रत्यक्ष ये तीन मूलभेद हों।
___ इस वक्तव्य का यह फलितार्थ हुआ कि प्रत्यक्ष के दो भेद-१ सांव्यवहारिक, २ मुख्य । सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के दो भेद- १ इन्द्रियप्रत्यक्ष, २ अनिन्द्रियप्रत्यक्ष । इन्द्रियप्रत्यक्ष-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणादिज्ञान । अनिन्द्रियप्रत्यक्ष-शब्दयोजना से पहिले की अवस्थावाले स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोधज्ञान । इस तरह अकलंकदेव ने प्रमाण के भेद किए जो निर्विवाद रूप से उत्तरकालीन ग्रन्थकारों द्वारा माने गए । हाँ, इसमें जो स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोधज्ञान को शब्दयोजना के पहिले अनिन्द्रियप्रत्यक्ष कहा है उसे किसी भी अन्य आचार्य ने स्वीकार नहीं किया । उन्हें सर्वांश में अर्थात् शब्दयोजना के पूर्व और पश्चात् दोनों अवस्थाओं में परोक्ष ही कहा है। यही कारण है कि आचार्य प्रभाचन्द्र ने लघीयस्त्रय की 'ज्ञानमाचं' कारिका का यह अर्थ किया है कि-'मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोधज्ञान शब्दयोजना के पहिले तथा शब्दयोजना के बाद दोनों अवस्थाओं में श्रुत हैं अर्थात् परोक्ष हैं।'
यद्यपि जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने अपने विशेषावश्यकभाष्य में प्रत्यक्ष के दो भेद करके इन्द्रियानिन्द्रियजप्रत्यक्ष को संव्यवहारप्रत्यक्ष कहा है, पर उन्होंने स्मृति
आदि ज्ञानों के विषय में कुछ खास नहीं लिखा । इन्द्रियप्रत्यक्ष को संव्यवहारप्रत्यक्ष मान लेने से लोकप्रसिद्धि का निर्वाह तथा दर्शनान्तरप्रसिद्धि का समन्वय भी हो गया और सूत्रकार का अभिप्राय भी सुरक्षित रह गया ।
। प्रत्यक्ष-सिद्धसेनदिवाकर ने प्रत्यक्ष का-'अपरोक्ष रूप से अर्थ को जानने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है' यह परोक्षलक्षणाश्रित लक्षण किया है। यद्यपि विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष मानने की परम्परा बौद्धों में स्पष्ट है, फिर भी प्रत्यक्ष के लक्षण में अकलंक के द्वारा विशद पद के साथ ही साथ प्रयुक्त साकार और अंजसा पद खास महत्त्व रखते हैं । बौद्ध निर्विकल्पज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं । यह निर्विकल्पकज्ञान जैनपरम्परा में प्रसिद्ध-इन्द्रिय और पदार्थ के योग्यदेशावस्थितिरूप सन्निकर्ष के बाद उत्पन्न होने वाले,
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