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________________ प्रस्तावना प्रमाणनिरूपण] द्वारा वस्तु के समस्त गुणों का दर्शन हो जाता है; तब प्रत्यक्ष के द्वारा सर्वांशतया गृहीत वस्तु में कोई भी अनधिगत अंश नहीं बचा, जिसके ग्रहण के लिए अनुमान को प्रमाण माना जाय । अनुमान के विषयभूत अन्यापोहरूप सामान्य में विपरीतारोप की संभावना नहीं है, अतः समारोपव्यवच्छेदार्थ भी अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता। अकलंकोत्तरवर्ती आ० माणिक्यनन्दि ने अनधिगतार्थ की जगह कुमारिल के अपूर्वार्थ पद को स्थान दिया । पर विद्यानन्द तथा उनके बाद अभयदेव, वादिदेव, हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने अनधिगत या अपूर्वार्थ किसी भी पद को अपने लक्षणों में नहीं रखा । ज्ञान का स्व-परसंवेदन विचार-ज्ञान के स्वरूपसंवेदन के विषय में निम्न वाद हैं-१ मीमांसक का परोक्षज्ञानवाद, २ नैयायिक का ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद, ३ सांख्य का प्रकृतिपर्यायात्मक ज्ञान का पुरुष द्वारा संचेतनवाद, ४ बौद्ध का साकार-स्वसंवेदनज्ञानवाद, ५ जैन का निराकार-स्वसंवेदनज्ञानवाद । अकलंकदेव ने इतर वादों की समालोचना इस प्रकार की है परोक्षज्ञानवादनिरास-यदि ज्ञान को परोक्ष माना जाय अर्थात् ज्ञान स्वयं अपने स्वरूप को न जान सके, तब उस परोक्षज्ञान के द्वारा जाना गया पदार्थ हमारे प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो सकेगा; क्योंकि प्रात्मान्तर के ज्ञान से हमारे ज्ञान में यही स्वकीयत्व है कि वह हमारे स्वयं प्रत्यक्ष का विषय है, उसे हम स्वयं उसी के द्वारा प्रत्यक्ष कर सकते हैं, जब कि आत्मान्तर के ज्ञान को हम स्वयं उसी के द्वारा प्रत्यक्ष नहीं करते । यही कारण है कि आत्मान्तर के ज्ञान के द्वारा हमें पदार्थ का प्रत्यक्ष नहीं होता । जब ज्ञान स्वयं प्रत्यक्ष नहीं तब उसकी सिद्धि अनुमान से भी कैसे होगी ? क्योंकि अस्वसंविदित अर्थप्रकाशरूप लिंग से अज्ञात धर्मि-ज्ञान का अविनाभाव ही गृहीत नहीं है । अर्थप्रकाश को स्वसंविदित मानने पर तो ज्ञान की कल्पना ही निरर्थक हो जायगी; क्योंकि स्वार्थसंवेदी अर्थप्रकाश से स्व और अर्थ उभय का परिच्छेद हो सकता है। इसी तरह विषय, इन्द्रिय, मन आदि भी परोक्ष ज्ञान का अनुमान नहीं करा सकते; क्योंकि एक तो इनके साथ ज्ञान का अविनाभाव असिद्ध है, दूसरे इनके होने पर भी कभी कभी ज्ञान नहीं होता अतः ये व्यभिचारी भी हैं । यदि विषयजन्य ज्ञानात्मक सुखादि परोक्ष हैं; तब उनसे हमें अनुग्रह या परिताप नहीं हो सकेगा। अपने सुखादि को अनुमानग्राह्य मानकर अनुग्रहादि मानना तो अन्य आत्मा के सुख से व्यभिचारी है, अर्थात् परकीय आत्मा के सुखादि का हम उसकी प्रसाद-विषादादि चेष्टाओं से अनुमान तो कर सकते हैं पर उनसे अनुग्रहादि तो हमें नहीं होता । ज्ञान को परोक्ष मानने पर आत्मान्तर की बुद्धि का अनुमान करना भी कठिन हो जायगा । परकीय आत्मा में बुद्धि का अनुमान व्यापार वचनादि चेष्टाओं से किया जाता है । यदि हमारा ज्ञान हमें ही अप्रत्यक्ष है, तब हम ज्ञान का व्यापारादि के साथ कार्यकारणरूप अविनाभाव अपनी आत्मा में तो ग्रहण ही नहीं कर सकेंगे, अन्य आत्मा में तो अभी तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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