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अकलङ्कग्रन्थत्रय
[प्रन्थ प्रमाणसम्प्लव विचार-यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि धर्मकीर्ति और उनके टीकाकार धर्मोत्तर ने अज्ञातार्थप्रकाश और अनधिगतार्थप्राहि शब्दों का प्रयोग करके प्रमाणसम्प्लव का निषेध किया है। एक प्रमेय में अनेक प्रमाणों की प्रवृत्ति को प्रमाणसम्प्लव कहते हैं। बौद्ध पदार्थों को एकक्षणस्थायी मानते हैं। उनके सिद्धान्त के अनुसार पदार्थ ज्ञान में कारण होता है । अतः जिस विवक्षित पदार्थ से कोई भी प्रत्यक्षज्ञान उत्पन्न हुआ कि वह पदार्थ दूसरे क्षण में नियम से नष्ट हो जाता है। इसलिए किसी भी अर्थ में दो ज्ञानों के प्रवृत्त होने का अवसर ही नहीं है । दूसरे, बौद्धों ने प्रमेय के दो भेद किए हैं-१ विशेष (स्वलक्षण), २ सामान्य (अन्यापोहरूप)। विशेष पदार्थ को विषय करने वाला प्रत्यक्ष है तथा सामान्य को जाननेवाले अनुमानादि विकल्पज्ञान । इस तरह विषयद्वैविध्य से प्रमाणद्वैविध्यात्मक व्यवस्था होने से कोई भी प्रमाण अपनी विषयमर्यादा को नहीं लाँघ सकता। इसलिए विजातीय प्रमाण की तो स्वनियत विषय से भिन्न प्रमेय में प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती । रह जाती है सजातीय प्रमाणान्तर के सम्प्लव की बात, सो द्वितीय क्षण में जब वह पदार्थ रहता ही नहीं है तब सम्प्लव की चर्चा अपने आप ही समाप्त हो जाती है ।
___ यहां यह प्रश्न होता है कि-'जैन तो पदार्थ को एकान्तक्षणिक नहीं मानते और न विषयद्वैविध्य को ही । जैन की दृष्टि से तो एक सामान्य-विशेषात्मक अर्थ सभी प्रमाणों का विषय होता है। तब अनधिगतार्थग्राहि पद का जैनोक्त प्रमाणलक्षण में क्या उपयोग हो सकता है ?' अकलंकदेव ने इसका उत्तर दिया है कि-वस्तु अनन्तधर्मवाली है । अमुक ज्ञान के द्वारा वस्तु के अमुक अंशों का निश्चय होने पर भी अगृहीत अंशों को जानने के लिए प्रमाणान्तर को अवकाश रहता है । इसी तरह जिन ज्ञात अंशों में संवाद हो जाने से निश्चय हो गया है, उन अंशों में भले ही प्रमाणान्तर कुछ विशेष परिच्छेद न करें पर जिन अंशों में असंवाद होने से अनिश्चय या विपरीतनिश्चय है उनका निश्चय करके तो प्रमाणान्तर विशेषपरिच्छेदक होने के कारण अनधिगतग्राहिरूप से प्रमाण ही हैं। प्रमाणसम्प्लव के विषय में यह बात और भी ध्यान देने योग्य है कि-अकलंकदेव ने प्रमाण के लक्षण में अनधिगतार्थग्राहि पद के प्रवेश करने के कारण अनिश्चितांश के निश्चय में या निश्चितांश में उपयोगविशेष होने पर प्रमाणसम्प्लव माना है, जब कि नैयायिक ने अपने प्रमाणलक्षण में ऐसा कोई पद नहीं रखा, अत: उसकी दृष्टि से वस्तु गृहीत हो या अगृहीत, यदि इन्द्रियादि कारणकलाप मिल जाँय तो अवश्य ही प्रमाण की प्रवृत्ति होगी, इसी तरह उपयोग विशेष होया न हो, कोई भी ज्ञान इसलिए अप्रमाण नहीं होगा कि उसने गृहीत को ग्रहण किया है । तात्पर्य यह कि नैयायिक को प्रत्येक अवस्था में प्रमाणसम्प्लवर वीकृत है ।
__अकलंकदेव ने बौद्धमत में प्रमाणसम्प्लव की असंभवता के कारण 'अनुमान की अप्रवृत्ति' रूप दूषण देते हुए कहा है कि जब आप के यहां यह नियम है कि प्रत्यक्ष के
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