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प्रमाणनिरूपण ] प्रस्तावना
४३ के प्रयोग से प्रमाण और नय में भेदाभाव नहीं हो सकता। नयान्तरसापेक्ष नय यदि प्रमाण हो जाय तब तो व्यवहारादि सभी नयों को प्रमाण मानना होगा। इस तरह उपाध्यायजी ने अकंलक के मत का ही समर्थन किया है ।
आन्तरिक विषयपरिचय इस परिचय में अकलंकदेव ने प्रस्तुत तीनों ग्रन्थों में जिन विषयों पर संक्षेप या विस्तार से जो भी लिखा है, उन विषयों का सामान्य परिचय तथा अकलंकदेव के वक्तव्य का सार दिया गया है । इससे योग्यभूमिकावाले जैनन्याय के अभ्यासियों का अकलंक के ग्रन्थों में प्रवेश तो होगा ही, साथ ही साथ जैनन्याय के रसिक अध्यापकों को जैनन्याय से सम्बन्ध रखने वाले दर्शनान्तरीय विषयों की अनेकों महत्त्वपूर्ण चर्चाएँ भी मिल सकेगी। इसमें प्रसंगतः जिन अन्य आचार्यों के मतों की चर्चा आई है उनके अवतरण देखने के लिए उस विषय के टिप्पणों को ध्यान से देखना चाहिए। इस परिचय को ग्रंथशः नहीं लिखकर तीनों ग्रन्थों के मुख्य २ विषयों का संकलन करके लिखा है । जिससे पाठकों को विशेष सुविधा रहेगी। यह परिचय मुख्यतया से प्रमाण, प्रमेय, नय, निक्षेप और सप्तभंगीरूपसे स्थूल विभाग करके लिखा गया है । १. प्रमाणनिरूपण
प्रमाणसामान्यविचार-समन्तभद्र और सिद्धसेन ने प्रमाणसामान्य के लक्षण में स्वपरावभासक, ज्ञान तथा बाधवर्जित पद रखे हैं, जो उस समय के प्रचलित लक्षणों से जैनलक्षण को व्यावृत्त कराते थे। साधारणतया 'प्रमाकरणं प्रमाणम्' यह लक्षण सर्वमान्य था। विवाद था तो इस विषय में कि वह करण कौन हो ? न्यायभाष्य में करणरूपसे सन्निकर्ष और ज्ञान दोनों का स्पष्टतया निर्देश है। यद्यपि विज्ञानवादी बौद्ध ज्ञान को स्वसंवेदी मानते रहे हैं, पर वे करण के स्थान में सारूप्य या योग्यता को रखते हैं। समन्तभद्रादि ने करण के स्थान में स्वपरावभासक ज्ञान पद रखके ऐसे ही ज्ञान को प्रमाण माना जो स्व और पर उभय का अवभासन करने वाला हो। अकलंकदेव ने इस लक्षण में अविसंवादि और अनधिगतार्थग्राहि इन दो नए पदों का समावेश करके अवभासक के स्थान में व्यवसायात्मक पद का प्रयोग किया है । अविसंवादि तथा अज्ञातार्थप्रकाश पद स्पष्टरूपसे धर्मकीर्ति के प्रमाण के लक्षण से आए हैं तथा व्यवसायात्मक पद न्यायसूत्र से। इनकी लक्षणसंघटना के अनुसार स्व और पर का व्यवसाय-निश्चय करनेवाला, अविसंवादि-संशयादि समारोप का निरसन करनेवाला और अनधिगतार्थ को जाननेवाला ज्ञान प्रमाण होगा ।
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