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अकलङ्कप्रन्थत्रय
[ प्रन्थ
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रही है । धर्मकीर्ति की प्रमाणवार्तिक-स्ववृत्ति को देखकर तो यह और भी स्पष्ट मालूम होने लगता है कि उस समय कुछ ऐसी ही सूत्र रूप से लिखने की परम्परा थी । लेखनशैली में परिहास का पुट भी कहीं कहीं बड़ी व्यंजना के साथ मिलता है, जैसेन्यायविनिश्चय में धर्मकीर्ति के - " जब सब पदार्थ द्रव्यरूपसे एक हैं तब दही और ऊँट भी द्रव्यरूपसे एक हुए, अतः दही को खानेवाला ऊँट को क्यों नहीं खाता ?" इस आक्षेप का उत्तर देते हुए लिखा है कि-भाई, जैसे सुगत पूर्व भव में मृग थे, तथा मृग भी सुगत हुआ था, अतः सन्तानदृष्टि से एक होने पर भी आप मृग की जगह सुगत को क्यों नहीं खाते और मृग की वन्दना क्यों नहीं करते ? अतः जिस तरह वहाँ पर्यायभेद होने से वन्द्यत्व और खाद्यत्व की व्यवस्था है उसी तरह दही और ऊँट के शरीर में पुद्गलद्रव्यरूपसे एकता होने पर भी पर्याय की अपेक्षा भिन्नता है । यथा
तथा
"सुगतोऽपि मृगो जातः मृगोऽपि सुगतस्तथा । तथापि सुगतो वन्द्यो मृगः खाद्यो यथेष्यते ॥ वस्तुबलादेव भेदाभेदव्यवस्थितेः । चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रमभिधावति ॥ " [ न्यायवि० ३।३७३-७४]
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अकलंक के प्रकरणों का सूक्ष्मता से अनुसंधान करने पर मालूम होता है किअकलंकदेव की सीधी चोट बौद्धों के ऊपर है । इतरदर्शन तो प्रसंग से ही चर्चित हैं, और उनकी समालोचना में बौद्धदर्शन का सहारा भी लिया गया है। बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक से तो अनेकों पूर्वपक्ष शब्दशः लेकर समालोचित हुए हैं । धर्मकीर्ति के साथ ही साथ उनके शिष्य एवं टीकाकार प्रज्ञाकरगुप्त, कर्णकगोमि प्रभृति भी कलंक केद्वारा युक्तिजालों में लपेटे गए हैं । जहाँ भी मौका मिला सौत्रान्तिक या विज्ञानवादी के ऊपर पूरा पूरा प्रहार किया गया है । कुमारिल की सर्वज्ञताविरोधिनी युक्तियाँ प्रबलप्रमाणों से खंडित की गई हैं । जैननिरूपण में समन्तभद्र, पूज्यपाद का प्रभाव होने पर भी न्यायविनिश्चय में सिद्धसेन दिवाकर के न्यायावतार तथा लघीयस्त्रय के नयनिरूपण में सन्मतितर्क के नयकाण्ड तथा मल्लवादि के नयचक्र का भी प्रभाव है । उत्तरकालीन ग्रन्थकार अनन्तवीर्य, माणिक्यनन्दि, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, अभयदेव, शान्तिसूरि, वादिराज, वादिदेव, हेमचन्द्र तथा यशोविजय यदि सभी आचार्यों ने कलंक के द्वारा प्रस्थापित जैनन्यायकी रेखा का विस्तार किया तथा उनके वाक्यों को बड़ी श्रद्धा से उद्धृत कर अपनी कृतज्ञता प्रकट की है ।
अकलंक द्वारा प्रणीत व्यवस्था में अनुपपत्ति शान्तिसूरि तथा मलयगिरि आचार्य ने दिखाई है । शान्तिसूरि ने जैनतर्कवार्तिक में कलङ्क द्वारा प्रमाणसंग्रह में प्रतिपादित प्रत्यक्ष-अनुमान-आगमनिमित्तक त्रिविध श्रुत की जगह द्विविध अनुमान और शब्दज श्रुत माना है । मलयगिरि प्राचार्य ने सम्यग्नय में स्यात्पद के प्रयोग का इस आधार पर समालोचन किया है कि स्यात् पद का प्रयोग करने से तो प्रमाण और नय में कोई भेद नहीं रहेगा । पर इसका उत्तर उ० यशोविजय ने गुरुतत्त्वविनिश्चय में दे दिया है कि - मात्र स्यात् पद
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