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________________ रचना शैली ] प्रस्तावना राजवार्तिक के सिवाय प्रायः सभी ग्रन्थ अष्टशती जितने ८०० श्लोक प्रमाण ही मालूम होते हैं । धर्मकीर्ति के हेतुबिन्दु, वादन्याय, प्रमाणविनिश्चय ग्रन्थ भी करीब करीब इतने ही छोटे हैं । उस समय संक्षिप्त पर अर्थबहुल, गंभीर तथा तलस्पर्शी प्रकरणों की रचना का ही युग था। अकलंक जब आगमिक विषय पर कलम उठाते हैं तब उनके लेखन की सरलता, विशदता एवं प्रसाद गुण का प्रवाह पाठक को पढ़ने से ऊबने नहीं देता। राजवार्तिक की प्रसन्न रचना इसका अप्रतिम उदाहरण है। परन्तु जब वही अकलंक तार्किक विषयों पर लिखते हैं तब वे उतने ही दुरूह बन जाते हैं। अकलंक के प्रस्तुत संस्करण में मुद्रित प्रकरणग्रन्थ अत्यन्त जटिल, गूढ़ एवं इतने संक्षिप्त हैं कि कहीं कहीं उनका आधार लेकर टीकाकारों द्वारा किए गए अर्थ अकलंक के मनोगत थे या नहीं यह संदेह होने लगता है । अकलंक के प्रकरणों की यथार्थज्ञता का दावा करने वाले अनन्तवीर्य भी इनकी गूढ़ता के विषय में वरवस कह उठते हैं कि"देवस्यानन्तवीर्योऽपि पदं व्यक्तं तु सर्वथा । न जानीतेऽकलंकस्य चित्रमेतत्परं भुवि ॥" अर्थात्-"अनन्तवीर्य भी अकलंक देव के पदों के व्यक्त अर्थ को नहीं जान पाता यह बड़ा आश्चर्य है ।" ये अनन्तवीर्य उस समय अकलंक के प्रकरणों के मर्मज्ञ, तलद्रष्टा समझे जाते थे । प्रभाचन्द्र एवं वादिराज अनन्तवीर्य की अकलंकीय प्रकरणों की तलस्पर्शिता का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि-"मैंने त्रिलोक के यावत् पदार्थों को संक्षेपरूपसे वर्णन करनेवाली अकलंक की पद्धति को अनन्तवीर्य की उक्तियों का सैकड़ों वार अभ्यास करके समझ पाया है ।" "अकलंक के गूढ़ प्रकरणों को यदि अनन्तवीर्य के वचनदीप प्रकट न करते तो उन्हें कौन समझ सकता था ?" आदि । सविवृति लघीयत्रय पर प्रभाचन्द्र की टीका उपलब्ध होने से तथा उसका विषय कुछ प्रारम्भिक होने से समझने में उतनी कठिनाई नहीं मालूम होती जितनी न्यायविनिश्चय में । प्रमाणसंग्रह में तो यह कठिनाई अपनी चरम सीमा को पहुँच जाती है । एक ही प्रकरण में अनेक चर्चाओं का समावेश हो जाने से तो यह जटिलता और भी बढ़ जाती है। उदाहरणार्थ-न्यायविनिश्चय में भूतचैतन्यवाद का निराकरण करते हुए जहाँ यह लिखा है कि ज्ञान भूतों का गुण नहीं है, वहीं लगे हाथ गुण शब्द का व्याख्यान तथा वैशेषिक के गुणगुणिभेद का खंडन भी कर दिया है। समझनेवाला इससे विषय के वर्गीकरण में बड़ी कठिनाई का अनुभव करता है। अकलंकदेव का षड्दर्शन का गहरा अभ्यास तथा बौद्वशास्त्रों का अतुलभावनापूर्वक आत्मसात्करण ही उन के प्रकरणों की जटिलता में कारण मालूम होता है। वे यह सोचते हैं कि कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक सूक्ष्म और बहु पदार्थ ही नहीं किन्तु बहुविध पदार्थ लिखा जाय । उनकी यह शब्दसंक्षिप्तता बड़े बड़े प्रकाण्डपण्डितों को अपनी बुद्धि को मापने का मापदण्ड बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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