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________________ अकलकग्रन्थत्रय [प्रन्थ नुपपत्तिरूप हेतुलक्षण का समर्थन, हेतु के उपलब्धि अनुपलब्धि आदि भेदों का विवेचन, पूर्वचर उत्तरचर और सहचरहेतु का समर्थन आदि हेतुसम्बन्धी विचार है । पंचम प्रस्ताव में-१०॥ कारिकाएँ हैं। इनमें विरुद्धादि हेत्वाभासों का निरूपण, सर्वथा एकान्त में सत्त्वहेतु की विरुद्धता, सहोपलम्भनियमहेतु की विरुद्धता, विरुद्वाव्यभिचारी का विरुद्ध में अन्तर्भाव, अज्ञात हेतु का अकिञ्चित्कर में अन्तर्भाव आदि हेत्वाभास विषयक प्ररूपण है, तथा अन्तर्व्याप्ति का समर्थन है । __षष्ठ प्रस्ताव में-१२॥ कारिकाएँ हैं। इनमें वाद का लक्षण, जयपराजय व्यवस्था का स्वरूप, जाति का लक्षण, दध्युष्टत्वादि के अभेदप्रसंग का जात्युत्तरत्व, उत्पादादित्रयात्मकत्वसमर्थन, सर्वथा नित्य सिद्ध करने में सत्त्वहेतु का सिद्धसेनादि के मत से असिद्धत्वादिनिरूपण आदि वादविषयक कथन है। अन्त में-धर्मकीर्ति आदि ने अपने ग्रन्थों में प्रतिवादियों के प्रति जिन जाडय आदि अपशब्दों का प्रयोग किया है उनका बहुत सुन्दर मुंहतोड़ उत्तर दिया है । लिखा है कि-शून्यवाद, संवृतिवाद, विज्ञानवाद, निर्विकल्पकदर्शन, परमाणुसञ्चय को प्रत्यक्ष का विषय मानना, अपोहवाद तथा मिथ्यासन्तान ये सात बातें माननेवाला ही वस्तुतः जड़ है। प्रतिज्ञा को असाधन कहना, अदृश्यानुपलब्धि को अगमक कहना आदि ही अहीकता-निर्लज्जता है। निर्विकल्पकप्रत्यक्ष के सिवाय सब ज्ञानों को भ्रान्त कहना, साकार ज्ञान मानना, क्षणभङ्गवाद तथा असत्कार्यवाद ही पशुता के द्योतक हैं । परलोक न मानना, शास्त्र न मानना, तप दान देवता आदि से इन्कार करना ही अलौकिकता है । अतीन्द्रिय धर्माधर्म आदि में शब्द-वेद को ही प्रमाण मानना, किसी चेतन को उसका ज्ञाता न कहना ही तामस है । संस्कृत आदि शब्दों में साधुता असाधुता का विचार तथा उनके प्रयोग मात्र से पुण्य-पाप मानना ही प्राकृत-ग्रामीणजन का लक्षण है। सप्तम प्रस्ताव में–१० कारिकाएँ हैं । इसमें प्रवचन का लक्षण, सर्वज्ञता में किए जाने वाले सन्देह का निराकरण, अपौरुषेयत्व का खंडन, तत्त्वज्ञानचारित्र की मोक्षहेतुता आदि प्रवचन सम्बन्धी विषयों का विवेचन है। ___ अष्टम प्रस्ताव में–१३ कारिकाएँ हैं। इनमें सप्तभंगी का निरूपण तथा नैगमादिनयों का कथन है । नवम प्रस्ताव में–२ कारिकाएँ हैं। इनमें प्रमाण नय और निक्षेप का उपसंहार है। ३. रचनाशैली अकलङ्क के ग्रन्थ दो प्रकार के हैं-१ टीका ग्रन्थ, २ स्वतंत्र प्रकरण । टीका ग्रन्थों में राजवार्तिक तथा अष्टशती हैं । स्वतंत्र ग्रन्थों में लघीयस्त्रयसविवृति, न्यायविनिश्चय सवृत्ति, सिद्धिविनिश्चय सवृत्ति और प्रमाणसंग्रह ये चार ग्रन्थ निश्चित रूप से अकलंककर्तृक हैं। परम्परागत प्रसिद्धि की दृष्टि से स्वरूपसम्बोधन, न्यायचूलिका, अकलंक प्रतिष्ठापाठ, अकलंक प्रायश्चित्तसंग्रह आदि हैं, जिनके कर्ता प्रसिद्ध अकलंकदेव न होकर अन्य अकलंक हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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