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________________ नाम का इतिहास ] प्रस्तावना ३४ आदि वाक्यों से तथा सिद्धिविनिश्चयटीका ( पृ० १२० A.) में न्यायविनिश्चय के नाम से उद्धृत "नचैतद्बहिरेव....” आदि गद्यभाग से पता चलता है। न्यायविनिश्चयविवरण (पृ० १६१ B.) में तथा च सूक्तं चूर्णो देवस्य वचनम् ' कहकर “समारोपव्यवच्छेदात्..." श्लोक उद्धृत मिलता है। बहुत कुछ संभव है कि इसी विवृतिरूप गद्यभाग का ही विवरणकार ने चूर्णि शब्द से उल्लेख किया हो । न्यायविनिश्चयविवरणकार वादिराज ने न्यायविनिश्चय के केवल पद्यभाग का व्याख्यान किया है। प्रमाणसंग्रह-पं० सुखलालजी की कल्पना है कि-'प्रमाणसंग्रह नाम दिग्नाग के प्रमाणसमुच्चय तथा शान्तरक्षित के तत्त्वसंग्रह का स्मरण दिलाता है ।' यह कल्पना हृदय को लगती है। पर तत्त्वसंग्रह के पहिले भी प्रशस्तपादभाष्य का पदार्थसंग्रह नाम प्रचलित रहा है। संभव है कि संग्रहान्त नाम पर इसका भी कुछ प्रभाव हो । जैसा कि इसका नाम है वैसा ही यह ग्रन्थ वस्तुतः प्रमाणों-युक्तियों का संग्रह ही है। इस ग्रन्थ की भाषा और खासकर विषय तो अत्यन्त जटिल तथा कठिनता से समझने लायक है । अकलंक के इन तीन ग्रन्थों में यही ग्रन्थ प्रमेयबहुल है। मालूम होता है कि यह ग्रन्थ न्यायविनिश्चय के बाद बनाया गया है; क्योंकि इसके कई प्रस्तावों के अन्त में न्यायविनिश्चय की अनेकों कारिकाएँ बिना किसी उपक्रम वाक्य के लिखी गई हैं । इसकी प्रौढ़ शैली से ज्ञात होता है कि यह अकलंकदेव की अन्तिम कृति है, और इसमें उन्होंने अपने यावत् अवशिष्ट विचारों के लिखने का प्रयास किया है, इसीलिए यह इतना गहन हो गया है। इसमें हेतुओं के उपलब्धि अनुपलब्धि आदि अनेकों भेदों का विस्तृत विवेचन है; जब कि न्यायविनिश्चय में मात्र उनका नाम ही लिया गया है । अतः यह सहज ही समझा जा सकता है कि-यह न्यायविनिश्चय के बाद बनाया गया होगा। इसमें ६ प्रस्ताव हैं, तथा कुल ८७३ कारिकाएँ। प्रथम प्रस्ताव में-१ कारिकाएँ हैं। इनमें प्रत्यक्ष का लक्षण, श्रुत का प्रत्यक्षानुमानागमपूर्वकत्व, प्रमाण का फल, मुख्यप्रत्यक्ष का लक्षण आदि प्रत्यक्ष विषयक निरूपण है। द्वितीय प्रस्ताव में- ६ कारिकाएँ हैं। इनमें स्मृति का प्रामाण्य, प्रत्यभिज्ञान की प्रमाणता, तर्क का लक्षण, प्रत्यक्षानुपलम्भ से तर्क का उद्भव, कुतर्क का लक्षण, विवक्षा के बिना भी शब्दप्रयोग का संभव, परोक्ष पदार्थों में श्रुत से अविनाभावग्रहण आदि का वर्णन है। अर्थात् परोक्ष के भेद स्मृति प्रत्यभिज्ञान और तर्क का निरूपण है । तृतीय प्रस्ताव में- १० कारिकाएँ हैं । इनमें अनुमान के अवयव साध्य साधन का लक्षण, साध्याभास का लक्षण, सदसदेकान्त में साध्यप्रयोग की असंभवता, सामान्यविशेषात्मक वस्तु की साध्यता तथा उसमें दिए जानेवाले संशयादि अाठ दोषों का परिहार आदि का वर्णन है। चतुर्थ प्रस्ताव में-११॥ कारिकाएँ हैं। इनमें त्रिरूप का खंडन करके अन्यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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