________________
अकलङ्कप्रन्थत्रय
[ ग्रन्थ
स्वार्थानुमान और परार्थानुमान का वर्णन है यदि धर्मकीर्ति का प्रमाणविनिश्चय के अतिरिक्त भी कोई न्यायविनिश्चय ग्रन्थ है तब तो ज्ञात होता है कि - प्रस्तावविभाजन तथा नामकरण की कल्पना में उसी ने कार्य किया है । यह भी संभव है कि - प्रमाणविनिश्चय को ही वादिदेवसूरि ने न्यायविनिश्चय समझ लिया हो। इसके तीन प्रस्तावों में निम्नविषयों का विवेचन है
३८
प्रथम प्रत्यक्ष प्रस्ताव में - प्रत्यक्ष का लक्षण, इन्द्रियप्रत्यक्ष का लक्षण, प्रमाणसम्प्लवसूचन, चक्षुरादिबुद्धियों का व्यवसायात्मकत्व, विकल्प के अभिलापवत्त्व आदि लक्षणों का खंडन, ज्ञान को परोक्ष मानने का निराकरण, ज्ञान के खसंवेदन की सिद्धि, ज्ञानान्तरवेद्यज्ञाननिरास, अचेतनज्ञाननिरास, साकारज्ञान निरास, निराकारज्ञान सिद्धि, संवेदनाद्वैतनिरास, विभ्रमवादनिरास, बहिरर्थसिद्धि चित्रज्ञानखण्डन, परमाणुरूप बहिरर्थ का निराकरण, अवयवों से भिन्न अवयवी का खण्डन, द्रव्य का लक्षण, गुणपर्याय का स्वरूप, सामान्य का स्वरूप, अर्थ के उत्पादादादित्रयात्मकत्व का समर्थन, अपोहरूप सामान्य का निरास, व्यक्ति से भिन्न सामान्य का खंडन, धर्मकीर्तिसम्मत प्रत्यक्षलक्षण का खंडन, बौद्धकल्पित स्वसंवेदन योगिमानसप्रत्यक्षनिरास, सांख्यकल्पित प्रत्यक्षलक्षरण का खंडन, नैयायिक के प्रत्यक्ष का समालोचन, अतीन्द्रियप्रत्यक्ष का लक्षण आदि विषयों का विवेचन किया गया है । द्वितीय अनुमानप्रस्ताव में अनुमान का लक्षण, प्रत्यक्ष की तरह अनुमान की बहिरर्थविषयता, साध्य-साध्याभास के लक्षण, बौद्धादिमतों में साध्यप्रयोग की असंभवता, शब्द का अर्थवाचकत्व, शब्दसंकेतग्रहणप्रकार, भूत चैतन्यवाद का निराकरण, गुणगुणि भेद का निराकरण, साधन - साधनाभास के लक्षण, प्रमेयत्व हेतु की अनेकान्तसाधकता, सत्त्वहेतु की परिणामित्वप्रसाधकता, त्रैरूप्य खंडन पूर्वक अन्यथानुपपत्तिसमर्थन, तर्क की प्रमाणता, अनुपलम्भहेतु का समर्थन, पूर्वचर उत्तरचर और सहचरहेतु का समर्थन, प्रसिद्ध विरुद्ध अनैकान्तिक और अकिञ्चित्कर हेत्वाभासों का विवेचन, दूषणाभास लक्षण, जातिलक्षण, जयेतरव्यवस्था, दृष्टान्त दृष्टान्ताभास विचार, वाद का लक्षण, निग्रहस्थानलक्षण, वादाभासलक्षण आदि अनुमान से सम्बन्ध रखने वाले विषयों का वर्णन है ।
तृतीय प्रवचनप्रस्ताव में - प्रवचन का स्वरूप, सुगत के प्राप्तत्व का निरास, सुगत के करुणावत्त्व तथा चतुरार्यसत्यप्रतिपादकत्व का परिहास, आगम के अपौरुषेयत्व का खण्डन, सर्वज्ञत्वसमर्थन, ज्योतिर्ज्ञानोपदेश सत्यस्वमज्ञान तथा इक्षणिकादिविद्या के दृष्टान्त द्वारा सर्वज्ञत्वसिद्धि, शब्दनित्यत्वनिरास, जीवादितत्त्वनिरूपण, नैरात्म्यभावना की निरर्थकता, मोक्ष का स्वरूप, सप्तभंगीनिरूपण, स्याद्वाद में दिए जाने वाले संशयादि दोषों का परिहार, स्मरण प्रत्यभिज्ञान आदि का प्रामाण्य, प्रमाण का फल आदि विषयों का विवेचन है । लघीयस्त्रय की तरह न्यायविनिश्चय पर भी स्वयं कलङ्ककृत विवृति अवश्य रही है । जैसा कि न्यायविनिश्चयविवरणकार ( पृ० १२० B. ) के ' वृत्तिमध्यवर्तित्वात् '
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org