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नाम का इतिहास ]
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और विवाद से प्रमाण - प्रमाणाभासव्यवस्था, विप्रकृष्टविषयों में श्रुत की प्रमाणता, हेतुवाद और प्राप्तोक्तरूप से द्विविध श्रुत की विसंवादि होने से प्रमाणता, शब्दों के विवक्षावाचित्व का खण्डन कर उनकी अर्थवाचकता आदि श्रुत सम्बन्धी बातों का विवेचन किया गया है । इस तरह प्रमाण के स्वरूप, संख्या, विषय और फल का निरूपण कर प्रमाणप्रवेश समाप्त होता है ।
प्रस्तावना
पंचमपरि० में - नय दुर्नय के लक्षण, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक रूप से मूलभेद, सत्रूप से समस्त वस्तुओं के ग्रहण का संग्रहनयत्व, ब्राह्मवाद का संग्रहाभासत्व, बौद्धाभिमत एकान्तक्षणिकता का निरास, गुण गुणी, धर्म धर्मी की गौण मुख्य विवक्षा में नैगमनय की प्रवृत्ति, वैशेषिकसम्मत गुणगुण्यादि के एकान्त भेद का नैगमाभासत्व, प्रामाणिक भेद का व्यवहारनयत्व, काल्पनिक भेद का व्यवहाराभासत्व, कालकारकादि के भेद से अर्थभेद निरूपण की शब्दनयता, पर्यायभेद से अर्थभेदक कथनका समभिरूढनयत्व, क्रियाभेद से अर्थभेद प्ररूपण का एवंभूतनयत्व, सामग्रीभेद से भिन्न वस्तु में भी षट्कारकी का संभव यदि समस्त नयपरिवार का विवेचन है । यहाँ नयप्रवेश समाप्त हो जाता है । ६ प्रवचन प्रवेश में - प्रमाण, नय, और निक्षेप के कथन की प्रतिज्ञा, अर्थ और आलोक की ज्ञानकारणता का खंडन, अन्धकार को ज्ञान का विषय होने से वरणरूपता का अभाव, तज्जन्म, ताद्रूप्य और तदध्यवसाय का प्रामाण्य में प्रयोजकत्व, श्रुत के सकलादेश विकलादेश रूप से दो उपयोग, 'स्यादस्त्येव जीव:' इस वाक्य की विकलादेशता, 'स्याज्जीव एव' इस वाक्य की सकलादेशता, शब्द की विवक्षा से भिन्न वास्तविक अर्थ की वाचकता, नैगमादि सात नयों में से आदि के नैगमादि चार नयों का अर्थनयत्व, शब्दादि तीन नयों का शब्दनयत्व, नामादि चार निक्षेपों के लक्षण, अप्रस्तुत निराकरण तथा प्रस्तुत अर्थ का निरूपण रूप निक्षेप का फल, इत्यादि प्रवचन के अधिगमोपायभूत प्रमाण, नय और निक्षेप का निरूपण किया गया है ।
न्यायविनिश्चय-धर्मकीर्ति का एक प्रमाणविनिश्चय ग्रन्थ प्रसिद्ध है। इसकी रचना गद्यपद्यमय है । न्यायविनिश्चय नाम स्पष्टतया इसी प्रमाणविनिश्चय नाम का अनुकरण है । नाम की पसन्दगी में आन्तरिक विषय का निश्चय भी एक खास कारण होता है । सिद्धसेन दिवाकर ने अपने न्यायावतार में प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द इन तीन प्रमाणों का विवेचन किया है। कलंकदेव ने न्यायविनिश्चय में भी तीन प्रस्ताव रखे हैं - १ प्रत्यक्ष प्रस्ताव, २ अनुमान प्रस्ताव, ३ प्रवचन प्रस्ताव । अतः संभव है कि अकलंक के लिए विषय की पसन्दगी में तथा प्रस्ताव के विभाजन में न्यायावतार प्रेरक हो, और इसीलिए उन्होंने न्यायावतार के 'न्याय' के साथ प्रमाणविनिश्चय के 'विनिश्चय' का मेल बैठाकर न्यायविनिश्चय नाम रखा हो । वादिदेवसूरि ने स्याद्वादरत्नाकर ( पृ० २३ ) में 'धर्मकीर्तिरपि न्यायविनिश्चयस्य............' यह उल्लेख करके लिखा है कि न्यायविनिश्चय के तीन परिच्छेदों में क्रमशः प्रत्यक्ष,
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