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३६ अकलङ्कप्रन्थत्रय
[ प्रन्थ बनाकर बाकी को गद्य भाग में लिखते हैं । अतः विषय की दृष्टि से गद्य और पद्य दोनों मिलकर ही ग्रन्थ की अखंडता स्थिर रखते हैं । धर्मकीर्ति की प्रमाणवार्तिक की वृत्ति भी कुछ इसी प्रकार की है। उसमें भी कारिकोक्त पदार्थ की पूर्ति तथा स्पष्टता के लिए बहुत कुछ लिखा गया है । अकलंक के प्रमाणसंग्रह का अध्ययन करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है किअकलंक के गवभाग को हम शुद्ध वृत्ति नहीं कह सकते, क्योंकि शुद्ध वृत्ति में मात्र मूलकारिका का व्याख्यान होना ही आवश्यक है, पर लघीयस्त्रय की विवृति या प्रमाणसंग्रह के गद्यभाग में व्याख्यानात्मक अंश नहीं के ही बराबर है। हाँ, कारिकोक्त पदों को आधार बनाकर उस विषय का शेष वक्तव्य गद्यरूप में उपस्थित कर दिया है। व्याख्याकार प्रभाचन्द्र ने इसको विवृति माना है और वे कारिका का व्याख्यान करके जब गद्य भाग का व्याख्यान करते हैं तब 'विवृति विवृण्वन्नाह' लिखते हैं। विवृति शब्द का प्रयोग हमारे विचार से खालिस टीका या वृत्ति के अर्थ में न होकर तत्सम्बद्ध शेष वक्तव्य के अर्थ में है।
लघीयस्त्रयमें चर्चित विषय संक्षेप में इस प्रकार हैं
प्रथमपरि० में सम्यग्ज्ञान की प्रमाणता, प्रत्यक्ष परोक्ष का लक्षण, प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और मुख्य रूप से दो भेद, सांव्यवहारिक के इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्ष रूपसे भेद, मुख्यप्रत्यक्ष का समर्थन, सांव्यवहारिक के अवग्रहादिरूप से भेद तथा उनके लक्षण, अवग्रहादिके बह्वादिरूप भेद, भावेन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय के लक्षण, पूर्व पूर्वज्ञान की प्रमाणता में उत्तरोत्तर ज्ञानों की फलरूपता आदि विषयों की चरचा है।
द्वितीयपरि० में-द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु का प्रमाणविषयत्व तथा अर्थक्रियाकारित्व, नित्यैकान्त तथा क्षणिकैकान्त में क्रमयोगपद्यरूपसे अर्थक्रियाकारित्व का अभाव, नित्य मानने पर विक्रिया तथा अविक्रिया का अविरोध आदि प्रमाण के विषय से सम्बन्ध रखनेवाले विचार प्रकट किए हैं ।
तृतीयपरि० में-मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, तथा अभिनिबोध का शब्दयोजना से पूर्व अवस्था में मतिव्यपदेश तथा उत्तर अवस्था में श्रुतव्यपदेश, व्याप्ति का ग्रहण प्रत्यक्ष
और अनुमान के द्वारा असंभव होने से व्याप्तिग्राही तर्क का प्रामाण्य, अनुमान का लक्षण, जलचन्द्र के दृष्टान्त से कारण हेतु का समर्थन, कृतिकोदय आदि पूर्वचर हेतु का समर्थन, अदृश्यानुपलब्धि से भी परचैतन्य आदि का अभावज्ञान, नैयायिकाभिमत उपमान का सादृश्यप्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भाव, प्रत्यभिज्ञान के वैसदृश्य आपेक्षिक प्रतियोगि आदि भेदों का निरूपण, बौद्ध मत में स्वभावादि हेतुओं के प्रयोग में कठिनता, अनुमानानुमेयव्यवहार की वास्तविकता एवं विकल्पबुद्धि की प्रमाणता आदि परोक्षज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले विषयों की चरचा है।
चतुर्थपरि० में किसी भी ज्ञान में ऐकान्तिक प्रमाणता या अप्रमाणता का निषेध करके प्रमाणाभास का स्वरूप, सविकल्पज्ञान में प्रत्यक्षाभासता का अभाव, अविसंवाद
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