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प्रस्तावना
नाम का इतिहास ]
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'प्रमाणनयप्रवेश' एक अखण्ड प्रकरण नहीं था, वे उसे दो स्वतन्त्र प्रकरण मानते थे । इसका आधार यह है कि - सिद्धिविनिश्चय टीका ( पृ० ५७२ B. ) में शब्दनयादि का लक्षण करके वे लिखते हैं कि “ एतेषामुदाहरणानि नयप्रवेशकप्रकरणादवगन्तव्यानि इनके उदाहरण नयप्रवेशकप्रकरण से जानना चाहिए । यहां नयप्रवेश को स्वतन्त्र प्रकरण रूप में उल्लेख करने से अनुमान किया जा सकता है कि अनन्तवीर्य की दृष्टि में प्रमाणप्रवेश और नयप्रवेश दो प्रकरण थे । और यह बहुत कुछ संभव है कि उनने ही प्रवचनप्रवेश को मिलाकर इनकी 'लघीयस्त्रय' संज्ञा दी हो । उस समय प्रवेशक और लघु ग्रन्थों को प्रकरण शब्द से कहने की परम्परा थी । जैसे न्यायप्रवेशप्रकरण, न्यायबिन्दुप्रकरण आदि । अनन्तवीर्य के इस लघीयस्य संज्ञाकरण के बाद तो इनकी प्रमाणनयप्रवेश तथा प्रवचनप्रवेश संज्ञा लघीयस्त्रय के तीन प्रवेशों के रूप में ही रही ग्रन्थ के नाम के रूप में नहीं ।
अस्तु,
लघीयस्त्रय नाम का इतिहास जान लेने के बाद अब हम इसका एक प्रखण्ड ग्रन्थ के रूप में ही वर्णन करेंगे; क्योंकि आज तक निर्विवाद रूप से यह एक ही ग्रन्थ के रूप में स्वीकृत चला आ रहा है । इस ग्रन्थ में तीन प्रवेश हैं- १ प्रमाण प्रवेश, २ नय प्रवेश, ३ निक्षेप प्रवेश । प्रमाण प्रवेश के चार परिच्छेद हैं- १ प्रत्यक्ष परिच्छेद, २ विषय परिच्छेद, ३ परोक्ष परिच्छेद, ४ गम परिच्छेद । इन चार परिच्छेदों के साथ नयप्रवेश तथा प्रवचन प्रवेश को मिलाकर कुल ६ परिच्छेद स्वोपज्ञविवृति की प्रति में पाए जाते हैं । लघीयस्त्रय के व्याख्याकार आ० प्रभाचन्द्र ने प्रवचनप्रवेश के भी दो परिच्छेद करके कुल सात परिच्छेदों पर अपनी न्यायकुमुदचन्द्र व्याख्या लिखी है । प्रवचनप्रवेश में जहाँ तक प्रमाण और नय का वर्णन है वहाँ तक प्रभाचन्द ने छठवाँ परिच्छेद, तथा निक्षेप के वर्णन को स्वतन्त्र सातवाँ परिच्छेद माना है ।
लघीयस्त्रय में कुल ७८ कारिकाएँ हैं । मुद्रित लघीयस्त्रय में ७७ ही कारिकाएँ हैं । उसमें ' लक्षणं क्षणिकैकान्ते' (का० ३५) कारिका नहीं है । नयप्रवेश के अन्त में 'मोहेनैव परोऽपि ' इत्यादि पद्य भी विवृति की प्रति में लिखा हुआ मिलता है । पर इस पद्य का प्रभाचन्द्र तथा अभयनन्दि ने व्याख्यान नहीं किया है, तथा उसकी मूलग्रन्थ के साथ कोई संगति भी प्रतीत नहीं होती, अतः इसे प्रक्षिप्त समझना चाहिए । प्रथम परि० में ६ ॥ द्वि० परि० में ३, तृ० परि० में १२, चतु० परि० में ७, पंचम परि० में २१, तथा ६ प्रवचन प्र० में २८, इस तरह कुल ७८ कारिकाएँ हैं ।
मूल लघीयस्त्रय के साथ ही स्वयं अकलंकदेव की संक्षिप्त विवृति भी इसी संस्करण में मुद्रित है । यह विवृति कारिकाओं का व्याख्यानरूप न होकर उस में सूचित विषयों की पूरक है । कलंकदेव ने इसे मूल श्लोकों के साथ ही साथ लिखा है। मालूम होता है कि-अकलंक देव जिस पदार्थ को कहना चाहते हैं, वे उसके अमुक अंश की कारिका
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