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________________ अकलङ्कग्रन्थत्रय [ग्रन्थ प्रमाणसंग्रह की कारिका नं० १ में आया हुआ 'अकलङ्क महीयसाम्' पद प्रमाणसंग्रह के अकलङ्करचित होने की सूचना दे देता है। इसका समर्थन आचार्य विद्यानन्द द्वारा 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ० १८५) में 'अकलङ्करभ्यधायि यः' कहकर उद्धृत इसकी दूसरी कारिका से, तथा वादिराजसूरि द्वारा न्यायविनिश्चयविवरण (पृ० ८३ A.) में ‘तथा चात्र देवस्य वचनम् ' लिखकर उद्धृत किए गए इसके (पृ० १८) 'विविधानुविवादनस्य' वाक्य से स्पष्टरूप में हो जाता है। ६ २. ग्रन्थत्रय के नाम का इतिहास तथा परिचय लघीयस्त्रय नाम से मालूम होता है कि यह छोटे छोटे तीन प्रकरणों का एक संग्रह है। पर इसका लघीयस्त्रय नाम ग्रन्थकर्ता के मन में प्रारम्भ से ही था या नहीं, अथवा बाद में ग्रन्थकारं ने स्वयं या उनके टीकाकारों ने यह नाम रखा, यह एक विचारणीय प्रश्न है । मालूम होता है कि-ग्रन्थ बनाते समय अकलंक देव को ‘लघीयस्त्रय' नाम की कल्पना नहीं थी। उनके मन में तो दिग्नाग के न्यायप्रवेश जैसा एक जैनन्यायप्रवेश बनाने की बात घूम रही थी। यद्यपि बौद्ध और नैयायिक परार्थानुमान को न्यायशब्द की मर्यादा में रखते हैं; पर अकलंकदेव ने तत्त्वार्थसूत्र के 'प्रमाणनयैरधिगमः' सूत्र में वर्णित अधिगम के उपायभूत प्रमाण और नय को ही न्यायशब्द का वाच्य माना है। तदनुसार ही उन्होंने अपने ग्रन्थ की रचना के समय प्रमाण और नय के निरूपण का उपक्रम किया । लघीयत्रय के परिच्छेदों का प्रवेशरूप से विभाजन तो न्यायप्रवेश को आधार मानने की कल्पना का स्पष्ट समर्थन करता है। प्रमाणनयप्रवेश की समाप्तिस्थल में विवृति की प्रति में "इति प्रमाणनयप्रवेशः समाप्तः। कृतिरियं सकलवादिचक्रचक्रवर्तिनो भगवतो भट्टाकलङ्कदेवस्य" यह वाक्य पाया जाता है। इस वाक्य से स्पष्ट मालूम होता है कि-अकलङ्कदेव ने प्रथम ही 'प्रमाणनयप्रवेश' बनाया था। इस प्रमाणनयप्रवेश की संकलना, मंगल तथा पर्यवसान इसके अखण्ड प्रकरण होने को पूरी तरह सिद्ध करते हैं। यदि नयप्रवेश प्रमाणप्रवेश से भिन्न एक खतन्त्र प्रकरण होता तो उसमें प्रवचनप्रवेश की तरह स्वतन्त्र मंगलवाक्य होना चाहिए था। अकलंकदेव की प्रवचन पर अगाध श्रद्धा थी। यही कारण है कि स्वतन्त्र उत्पादन की पूर्णसामर्थ्य रखते हुए भी उन्होंने अपनी शक्ति पुरातनप्रवचन के समन्वय में ही लगाई । उनने प्रवचन में प्रवेश करने के लिए तत्त्वार्थसूत्र में अधिगमोपाय रूप से प्ररूपित प्रमाण, नय और निक्षेप का अखण्डरूप से वर्णन करने के लिए प्रवचनप्रवेश बनाया। इस तरह अकलंकदेव ने प्रमाणनयप्रवेश और प्रवचनप्रवेश ये दो स्वतन्त्र प्रकरण बनाए । यह प्रश्न अभी तक है ही कि-'इसका लघीयस्त्रय नाम किसने रखा ?' मुझे तो ऐसा लगता है कि यह सूझ अनन्तवीर्य आचार्य की है; क्योंकि लघीयत्रय नाम का सब से पुराना उल्लेख हमें सिद्धिविनिश्चय टीका में मिलता है । अनन्तवीर्य की दृष्टि में . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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