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२. ग्रन्थ
[ बाह्यस्वरूपपरिचय ]
$ १. ग्रन्थत्रय की अकलङ्ककर्तृकता
प्रस्तुत ग्रन्थत्रय के कर्त्ता प्रखर तार्किक, वाग्मी श्रीमद्भट्टाकलङ्कदेव हैं । अकलङ्कदेव की यह शैली है कि वे अपने ग्रन्थों में कहीं न कहीं 'अकलङ्क' नाम का प्रयोग करते हैं । कहीं वह प्रयोग जिनेन्द्र के विशेषणरूप से हुआ है तो कहीं ग्रन्थ के विशेरूप से और कहीं किसी लक्ष्य के लक्षणभूत शब्दों में विशेषणरूप से ।
matra के प्रमाणनयप्रवेश के अन्त में आए हुए 'कृतिरियं सकलवादिचक्रचक्रवर्तिनो भगवतो भट्टाकलङ्कदेवस्य' इस पुष्पिकावाक्य से, कारिका नं० ५० में प्रयुक्त 'प्रेक्षावानकलङ्कमेति' पद से, तथा कारिका नं० ७८ में कथित 'भगवदकलङ्कानाम्' पद से ही लघीयस्त्रय की अकलङ्ककर्तृकता स्पष्ट है और अनन्तवीर्याचार्य द्वारा सिद्धिविनिश्चयटीका ( पृ० १६ B.) में उद्धृत " तदुक्तम् लघीयस्त्रये - प्रमाणफलयोः ' ......." इस वाक्य से, आचार्य विद्यानन्द द्वारा प्रमाणपरीक्षा ( पृ० ६९ ) एवं अष्टसहस्री ( पृ० १३४ ) में 'तदुक्तमकलङ्कदेवैः' कहकर उद्धृत लघीयस्त्रय की तीसरी कारिका से, तथा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ( पृ० २३९ ) में 'अत्र अकलङ्कदेवाः प्राहुः' करके उद्धृत लघीयस्त्रय की १० वीं कारिका से लघीयस्त्रय की अकलङ्ककर्तृकता समर्थित होती है । आचार्य मलयगिरि आवश्यक नियुक्ति की टीका ( पृ० ३७० B. ) में ' तथा चाहाकलङ्कः' कहकर लघीयस्त्रय की ३० वीं करिका उद्धृत करके लघीयस्त्रय की कलङ्ककर्तृता का अनुमोदन करते हैं ।
न्यायविनिश्चय कारिका नं० ३८६ में प्रयुक्त 'विस्रब्धैरकलङ्करत्ननिचयन्यायो ' पद से, तथा कारिका नं० ४८० में 'अभव्यादकलंकमङ्गलफलम् ' पद के प्रयोग से केवल न्यायविनिश्चय की कलङ्ककर्तृकता द्योतित ही नहीं होती; किन्तु न्यायविनिश्चयविवरणकार वादिराजसूरि के उल्लेखों से तथा आचार्य अनन्तवीर्यद्वारा सिद्धिविनिश्चयटीका ( पृ० २०८ B. ) में, एवं आचार्य विद्यानन्द द्वारा प्राप्तपरीक्षा ( पृ० ४१ ) में 'तदुक्तमकलङ्क देवैः' कहकर उद्धृत की गई इसकी ५१ वीं कारिका से इसका प्रबल समर्थन भी होता है । प्राचार्य धर्मभूषण ने तो न्यायदीपिका ( पृ० ८) में 'तदुक्तं भगवद्भिरकलङ्कदेवैः न्यायविनिश्चये' लिखकर न्यायविनिश्चय की तीसरी कारिका उद्धृत करके इसका असदिग्ध अनुमोदन किया है ।
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