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अकलङ्कप्रन्थत्रय
[प्रन्थकार और उसने इतनी प्रसिद्धि पाई होगी कि जिससे वह अकलंक जैसे तार्किक को अपनी ओर आकृष्ट कर सके । अतः अकलंक का समय ७२० से ७८० तक मानना चाहिए । पुराने जमाने में आज जैसे प्रेस डाँक आदि शीघ्र प्रसिद्धि के साधन नहीं थे, जिनसे कोई लेखक या ग्रन्थकार ५ वर्ष में ही दुनियां के इस छोर से उस छोर तक ख्याति प्राप्त कर लेता है। फिर उस समय का साम्प्रदायिक वातावरण ऐसा था जिससे काफी प्रसिद्धि या विचारों की मौलिकता ही प्रतिपक्षी विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर सकती थी, और इस प्रसिद्धि में कम से कम १५-२० वर्ष का समय तो लगना ही चाहिए। इस विवेचना के आधार पर हम निम्न आचार्यों का समय इस प्रकार रख सकते हैं
भर्तृहरि ६०० से ६५० तक प्रज्ञाकर ६७० से ७२५ तक कुमारिल ६०० से ६८० तक कर्णकगोमि ६९० से ७५० तक धर्मकीर्ति ६२० से ६१० तक शान्तरक्षित ७०५ से ७६२ तक धर्मोत्तर ६५० से ७२० तक अकलंक ७२० से ७८० तक
तात्पर्य यह कि- भर्तृहरि की अन्तिम कृति वाक्यपदीय सन् ६५० के आसपास बनी होगी। वाक्यपदीय के श्लोकों का खंडन करने वाला कुमारिल का मीमांसाश्लोकवार्तिक और तन्त्रवार्तिक जैसा महान् ग्रन्थ सन् ६६० से पहिले नहीं रचा गया होगा। कुमारिल के मीमांसाश्लोकवार्तिक की समालोचना जिस धर्मकीर्तिकृत बृहत्काय प्रमाणवार्तिक में है, उसकी रचना सन् ६७० के आसपास हुई होगी। प्रमाणवार्तिक पर प्रज्ञाकरगुप्त की अतिविस्तृत वार्तिकालंकार टीका सन् ६८५ के करीब रची गई होगी । वार्तिकालंकार का उल्लेख करने वाली कर्णकगोमि की विशाल प्रमाणवार्तिकस्वोपज्ञवृत्तिटीका की रचना ७२० से पहिले कम संभव है। अतः इन सब ग्रन्थों की आलोचना करने वाले अकलंक का समय किसी भी तरह सन् ७२० से पहिले नहीं जा सकता। अकलंक चरित के '७०० विक्रमार्कशताब्द' वाले उल्लेख को हमें इन्हीं प्रमाणों के प्रकाश में देखना है । यदि १६ वीं सदी के अकलंक चरित की दी हुई शास्त्रार्थ की तिथि ठीक है तो वह विक्रमसंवत् की न होकर शक संवत् की होनी चाहिए । शकसंवत् का उल्लेख भी 'विक्रमार्कशकाब्द' शब्द से पाया जाता है। अकलंक का यह समय मानने से प्रभाचन्द्र के कथाकोश का उन्हें शुभतुंग ( कृष्णराज प्र० राज्य सन् ७५८ के बाद) का मन्त्रिपुत्र वतलाना, मल्लिषेणप्रशस्ति का साहसतुंग ( दन्तिदुर्गद्रि०, राज्य सन् ७४५-७५८ ) की सभा में उपस्थित होना आदि घटनाएं युक्तिसंगत समयवाली सिद्ध हो जाती हैं । सोलहवीं सदी के अकलंकचरित की अपेक्षा हमें १४ वीं सदी के कथाकोश तथा १२ वीं सदी की मल्लिषेणप्रशस्ति को अग्रस्थान देना ही होगा; जब कि उसके साधक तथा पोषक अन्य आन्तरिक प्रमाण उपलब्ध हो रहे हैं । इति ।
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