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शान्तरक्षित-अकलंक ]
प्रस्तावना देवस्य वचनम् ' इस उल्लेख के साथ ही एक श्लोक न्यायविनिश्चयविवरण में उद्धृत देखा जाता है ( देखो इसी ग्रन्थ का परिशिष्ट १ वां)। इसी तरह अनन्तवीर्याचार्य ने सिद्धिविनिश्चय के अनेक वाक्यों को धर्मोत्तर के खंडन रूप में सूचित किया है । धर्मोत्तर करीब करीब प्रज्ञाकर के समकालीन मालूम होते हैं ।
शान्तरक्षित और अकलंक-धर्मकीर्ति के टीकाकारों में शान्तरक्षित भी अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। इन्होंने वादन्याय की टीका के सिवाय तत्त्वसंग्रह नाम का विशाल ग्रन्थ भी लिखा है । इनका समय सन् ७०५ से ७६२ तक माना जाता है । ( देखो तत्त्वसंग्रह की प्रस्तावना ) अकलंक और शान्तरक्षित की तुलना के लिए हम कुछ वाक्य नीचे देते हैं
"वृक्षे शाखा: शिलाश्चाग इत्येषा लौकिका मतिः ।" [ तत्त्वसं० पृ० २६७ ] "तानेव पश्यन् प्रत्येति शाखा वृक्षेऽपि लौकिकः ।" [ न्यायविनि० का १०४,
__ प्रमाणसं० का० २६ ] "अविकल्पमविभ्रान्तं तद्योगीश्वरमानसम् ।” [ तत्त्वसं० पृ. १३४ ] "अविकल्पकमभ्रान्तं प्रत्यक्षं न पटीयसाम् ।” [ न्यायवि० का० १५५ ] "एवं यस्य प्रमेयत्ववस्तुसत्त्वादिलक्षणाः । निहन्तुं हेतवोऽशक्ताः को न तं कल्पयिष्यति॥"
[ तत्त्वसं० पृ० ८८५] "तदेवं प्रमेयत्वसत्त्वादिर्यत्र हेतुलक्षणं पुष्णाति तं कथं चेतनः प्रतिषेधुमर्हति संशयितुं वा ।" ( अष्टश० अष्टसह ० पृ० ५८) इनके सिवाय शान्तरक्षित ने सर्वज्ञसिद्धि में ईक्षणिकादिविद्या का दृष्टान्त दिया है । यथा-"अस्ति हीक्षणिकाद्याख्या विद्या यां ( या ) सुविभाविता ।
__ परचित्तपरिज्ञानं करोतीहैव जन्मनि ॥” [ तत्त्वसं० पृ० ८८८ ] अकलंकदेव भी (न्यायवि० का० ४०७) सर्वज्ञसिद्धि में ईक्षणिकाविद्या का दृष्टान्त देते हैं ।
इन अवतरणों से अकलंक और शान्तरक्षित के बिम्बप्रतिबिम्बभाव का आभास हो सकता है।
अकलंक के साथ की गई प्रज्ञाकर आदि की तुलना से यह बात निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाती है कि अकलंकदेव इनके उत्तरकालीन नहीं तो लघुसमकालीन तो अवश्य ही हैं । उक्त समस्त आचार्यों को खींच कर एक काल में किसी भी तरह नहीं रखा जा सकता। अतः भर्तृहरि के समालोचक कुमारिल, कुमारिल का निरसन करने वाले धर्मकीर्ति, धर्मकीर्ति के टीकाकार प्रज्ञाकर गुप्त तथा प्रज्ञाकरगुप्त के वार्तिकालंकार के बाद बनी हुई कर्णकगोमि की टीका तक का आलोचन करने वाले अकलंक किसी भी तरह कुमारिल और धर्मकीर्ति के समकालीन नहीं हो सकते । धर्मकीर्ति के समय से इनको अवश्य ही कम से कम ५० वर्ष बाद रखना होगा। इन पचास वर्षों में प्रमाणवार्तिक की टीका वार्तिकालंकार की रचना तथा कर्णकगोमि की स्वोपज्ञवृत्तिटीका बनी होगी,
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