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________________ ३० अकलङ्कप्रन्थत्रय . [प्रन्थकार उनके ग्रन्थ देखने से कहा जा सकता है कि ये मंडनमिश्र के बाद के हैं। इन्होंने अनेकों जगह मण्डनमिश्र का नाम लेकर कारिकाएँ उद्धृत की हैं तथा उनका खंडन किया है । इनने प्रमाणवा० स्ववृ० टीका (पृ० ८८ ) में 'तदुक्तं मण्डनेन' कहकर "आहुर्विधात प्रत्यक्षं न निषेद्धृ विपश्चितः । नैकत्वे आगमस्तेन प्रत्यक्षेण प्रबाध्यते ॥" यह कारिका उद्धृत की है, तथा इसका खंडन भी किया है । मण्डनमिश्र ने स्फोटसिद्धि (पृ० ११३) में मी० श्लोकवार्तिक (पृ०५४२) की "वर्णा वा ध्वनयो वापि" कारिका उद्धृत की है, तथा विधिविवेक (पृ. २७६) में तन्त्रवार्तिक (२।१।१ ) की 'अभिधाभावनामाहुः' कारिका उद्धृत की है। इसलिए इनका समय कुमारिल (सन् ६०० से ६८०) के बाद तो होना ही चाहिए। वृहती द्वितीयभाग की प्रस्तावना में इनका समय सन् ६७० से ७२० सूचित किया है, जो युक्तियुक्त है। अतः मण्डन का उल्लेख करनेवाले कर्णकगोमि का समय ७०० ई० के बाद होना चाहिए। ये प्रज्ञाकरगुप्त के उत्तरकालीन मालूम होते हैं; क्योंकि इन्होंने अपनी टीका में (पृ० १३७) 'अलङ्कार एव अवस्तुत्वप्रतिपादनात्' लिखकर वार्तिकालंकार का उल्लेख किया है । अत: इनका समय ६१० से पहिले होना संभव ही नहीं है । अकलंकदेव ने प्रमाणसंग्रह में इनके मत की भी आलोचना की है। यथा जब कुमारिल आदि ने बौद्धसम्मत पक्षधर्मत्वरूप पर आक्षेप करते हुए कहा कि कृतिकोदयादि हेतु तो शकटोदयादि पक्ष में नहीं रहते, अत: हेतु का पक्षधर्मत्वरूप अव्यभिचारी कैसे कहा जा सकता है ? तब इसका उत्तर कर्णकगोमि ने अपनी खवृत्तिटीका में इस प्रकार दिया है कि-काल को पक्ष मानकर पक्षधर्मत्व घटाया जा सकता है । यथा"तदा च स एव कालो धर्मी तत्रैव च साध्यानुमानं चन्द्रोदयश्च तत्सम्बन्धीति कथमपक्षधर्मत्वम् ? [प्रमाणवा० खवृ० टी० पृ० ११] अकलंकदेव इसका खंडन करते हुए लिखते हैं कि यदि कालादि को धर्मी मानकर पक्षधर्मत्व सिद्ध करोगे तो अतिप्रसंग हो जायगा । यथा-"कालादिधर्मिकल्पनायामतिप्रसङ्गः।” [प्रमाणसं० पृ० १०४ ] धर्मोत्तर और अकलंक-प्रज्ञाकर की तरह धर्मोत्तर भी धर्मकीर्ति के यशस्वी टीकाकार हैं। इन्होंने प्रमाणविनिश्चय न्यायबिन्दु आदि पर टीका लिखने के सिवाय कुछ खतन्त्र प्रकरण भी लिखे हैं। न्यायविनिश्चयविवरणकार (पृ. ३९० B. ) के लेखानुसार मालूम होता है कि-अकलंकदेव ने न्यायविनिश्चय ( का० १६२ ) में धर्मोत्तर (न्यायबि० टी० पृ. १६) के मानसप्रत्यक्ष विषयक विचारों की आलोचना की है। इसी तरह वे न्यायविनिश्चयविवरण (पृ० २६ B.) में लिखते हैं कि-चूर्णि में अकलंकदेव ने धर्मोत्तर के ( न्यायबिन्दुटीका पृ० १ ) आदिवाक्यप्रयोजन तथा शास्त्रशरीरोपदर्शन का प्रतिक्षेप किया है। यह चूर्णि अकलंकदेव की ही है; क्योंकि-'तथा च सूक्तं चूर्णी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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