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अकलङ्कग्रन्थत्रय
[ग्रन्थ ज्ञान का सद्भाव ही असिद्ध है । अतः अविनाभाव का ग्रहण न होने से परकीय आत्मा में बुद्धि का अनुमान नहीं हो सकेगा।
ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद निराकरण-यदि प्रथमज्ञान का प्रत्यक्ष द्वितीयज्ञान से माना जाय और इसी तरह अस्वसंवेदी तृतीयादिज्ञान से द्वितीयादिज्ञानों का प्रत्यक्ष; तब अनवस्था नाम का दूषण ज्ञान के सद्भाव सिद्ध करने में बाधक होगा, क्योंकि जब तक आगे आगे के ज्ञान अपने स्वरूप का निश्चय नहीं करेंगे तब तक वे पूर्वपूर्वज्ञानों को नहीं जान सकेंगे । और जब प्रथमज्ञान ही अज्ञात रहेगा तब उसके द्वारा अर्थ का ज्ञान असंभव हो जायगा । इस तरह जगत् अर्थनिश्चयशून्य हो जायगा। एक ज्ञान के जानने में ही जब इस तरह अनेकानेक ज्ञानों का प्रवाह चलेगा, तब तो ज्ञान की विषयान्तर में प्रवृत्ति ही नहीं हो सकेगी। यदि अप्रत्यक्षज्ञान से अर्थबोध माना जाय; तब तो हम लोग ईश्वरज्ञान के द्वारा भी समस्त पदार्थों को जानकर सर्वज्ञ बन जाँयगे, क्योंकि अभी तक हम लोग सर्वज्ञ के ज्ञान के द्वारा अर्थों को इसी कारण से नहीं जान सकते थे कि वह हमारे स्वयं अप्रत्यक्ष है।
प्रकृतिपर्यायात्मकज्ञानवाद निरसन-यदि ज्ञान प्रकृति का विकार होने से अचेतन है तथा वह पुरुष के संचेतन द्वारा अनुभूत होता है; तो फिर इस अकिञ्चित्कर ज्ञान का क्या प्रयोजन ? क्योंकि उसी ज्ञानस्वरूपसञ्चेतक पुरुषानुभव के द्वारा अर्थ का भी परिज्ञान हो जायगा। यदि वह सञ्चेतन स्वप्रत्यक्ष नहीं है; तब इस अकिञ्चित्कर ज्ञान की सत्ता किससे सिद्ध की जायगी ? ज्ञान विषयक सञ्चेतना जो कि अनित्य है, अविकारी कूटस्थनित्य पुरुष का धर्म भी कैसे हो सकती है ? अतः ज्ञान परिणामी पुरुष का ही धर्म है और वह स्वार्थसंवेदक होता है। इसी तरह यदि अर्थसंश्चतना स्वार्थसंवेदक है; तब तद्वयतिरिक्त अकिश्चित्कर पुरुष के मानने का भी क्या प्रयोजन ? यदि वह अस्वसंवेदक है; तब पूर्वज्ञान तथा पुरुष की सिद्धि किससे होगी ?
साकारज्ञानवाद निरास-साकारज्ञानवादी निराकारज्ञानवादियों को ये दूषण देते हैं कि-'यदि ज्ञान निराकार है, उसका किसी अर्थ के साथ कोई खास सम्बन्ध नहीं है; तब प्रतिकर्मव्यवस्था-घटज्ञान का विषय घट ही है पट नहीं-कैसे होगी ? तथा विषयप्रतिनियम न होने से सब अर्थ एकज्ञान के या सब ज्ञानों के विषय हो जायगे । विषयज्ञान और विषयज्ञानज्ञान में कोई भेद नहीं रहेगा। इनमें यही भेद है कि विषयज्ञान जहाँ केवल विषय के आकार होता है तब विषयज्ञानज्ञान अर्थ और अर्थाकारज्ञान दोनों के आकार को धारण करता है । विषय की सत्ता सिद्ध करने के लिए ज्ञान को साकार मानना आवश्यक है ।' अकलंकदेव ने इनका समाधान करके ज्ञान को निराकार सिद्ध करते हुए लिखा है कि-विषयप्रतिनियम के लिए ज्ञान की अपनी शक्ति ही नियामक है । जिस ज्ञान में जिस प्रकार की जितनी शक्ति होगी उससे उतनी और उसी प्रकार की अर्थव्यवस्था होगी।
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