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प्रज्ञाकरगुप्त-अकलङ्क ]
प्रस्तावना होने से ये भी धर्मकीर्ति के समकालीन ही हैं। हाँ, धर्मकीर्ति वृद्ध तथा प्रज्ञाकर युवा रहे होंगे । अतः इनका समय भी करीब ६७० से ७२५ तक मानना ठीक है । यह समय भिनु राहुलजी द्वारा सूचित टिबेटियन गुरुपरम्परा के अनुसार भी ठीक बैठता है। प्रज्ञाकरगुप्त के वार्तिकालंकार की भिक्षु राहुलजी द्वारा की गई प्रेसकापी पलटने से मालूम हुआ कि प्रज्ञाकर ने मात्र प्रमाणवार्तिक की टीका ही नहीं की है। किन्तु कुछ अपने स्वतन्त्र विचार भी प्रकट किए हैं। जैसे
१-सुषुप्त अवस्था में ज्ञान की सत्ता नहीं मानकर जाग्रत् अवस्था के ज्ञान को प्रबोध अवस्थाकालीन ज्ञान में कारण मानना तथा भाविमरण को अरिष्ट-अपशकुन में कारण मानना। तात्पर्य यह कि-अतीतकारणवाद और भाविकारणवाद दोनों ही प्रज्ञाकर के द्वारा आविष्कृत हैं। वे वार्तिकालंकार में लिखते हैं कि
"अविद्यमानस्य करणमिति कोऽर्थः ? तदनन्तरभाविनी तस्य सत्ता, तदेतदानन्तर्यमुभयापेक्षयापि समानम् । यथैव भूतापेक्षया तथा भाव्यपेक्षयापि । नचानन्तर्यमेव तत्त्वे निबन्धनम् , व्यवहितस्यापि कारणत्वात् ।। गाढसुप्तस्य विज्ञानं प्रबोधे पूर्ववेदनात् । जायते व्यवधानेन कालेनेति विनिश्चितम् ॥ तस्मादन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वं निबन्धनम् । कार्यकारणभावस्य तद्भाविन्यपि विद्यते ॥ भावेन च भावो भाविनापि लक्ष्यत एव । मृत्युप्रयुक्तमरिष्टमिति लोके व्यवहारः, यदि मृत्युन भविष्यन्न भवेदेवम्भूतमरिष्टमिति ।" [ वार्तिकालंकार पृ० १७६ ]
प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० ११० A.) का यह उल्लेख-"ननु प्रज्ञाकराभिप्रायेण भाविरोहिण्युदयकार्यतया कृतिकोदयस्य गमकत्वात् कथं कार्यहेतौ नास्यान्तर्भावः” इस बात का सबल प्रमाण है कि-प्रज्ञाकरगुप्त भाविकारणवादी थे । इसी तरह व्यवहितकारणवाद के सिलसिले में अनन्तवीर्य का यह लिखना कि “इति प्रज्ञाकरगुप्तस्यैव मतं न धर्मोत्तरादीनामिति मन्यते।" [सिद्धिवि० टी० पृ०१६१A. ] प्रज्ञाकर के व्यवहितकारणवादी होने का खासा प्रमाण है । प्रज्ञाकर के इस मत को समकालीन धर्मोत्तर आदि तथा उत्तरकालीन शान्तरक्षित आदि नहीं मानते थे।
२-स्वप्नान्तिकशरीर-प्रज्ञाकर स्वप्न में स्थूल शरीर के अतिरिक्त एक सूक्ष्म शरीर मानता है। खान में जो शरीर का दौड़ना, त्रास, भूख, प्यास, मेरुपर्वतादि पर गमन आदि देखे जाते हैं वे सब क्रियाएँ, मौजूदा स्थूलकाय के अतिरिक्त जो सूक्ष्मशरीर बनता है, उसीमें होती हैं । इस सूक्ष्मशरीर को वह स्वप्नान्तिकशरीर शब्द से कहता है । यथा"यथा खमान्तिकः कायः त्रासलंघनधावनैः । जानदेहविकारस्य तथा जन्मान्तरेष्वपि ॥"
"खमान्तिकशरीरसञ्चारदर्शनात्" [वार्तिकालंकार पृ० १४८, १८४] अनन्तवीर्याचार्य के सिद्धिविनिश्चयटीका (पृ० १३८ B.) में उल्लिखित "प्रज्ञाकरस्तु खमान्तिकशरीरवादी........" वाक्य से स्पष्ट है कि यह मत भी प्रज्ञाकरगुप्त का था।
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