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अकलमन्त्रय
[ प्रन्थकार
" पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुस्त्रिधैव सः । अविनाभावनियमाद् हेत्वाभासास्ततो ऽपरे ॥” इस आद्यकारिका की आलोचना सिद्धिविनिश्चय की हेतुलक्षणसिद्धि में की गई है । ३ - प्रमाणविनिश्चय के " सहोपलम्भनियमाद भेदो नीलतद्धियोः " वाक्य की अष्टशती ( अष्टसह ० पृ० २४२ ) में उद्धरण देकर आलोचना है ।
४ - वादन्याय की - " असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः । निग्रहस्थानमन्यत्तु न युक्तमिति नेष्यते ॥" इस आधकारिका की समालोचना न्यायविनिश्चय (का० ३७८ ) में, सिद्धिविनिश्चय के जल्पसिद्धि प्रकरण में, तथा अष्टशती ( अष्टसह० पृ० ८१ ) में हुई है ।
५ - प्रमाणवार्तिक स्वोपज्ञवृत्ति का “ तस्मादेकस्य भावस्य यावन्ति पररूपाणि तावत्यस्तदपेक्षाः तदसम्भविकार्थकारणाः तस्य भेदात् यावत्यश्च व्यावृत्तयः तावत्यः श्रुतयः ।" यह अंश अष्टशती ( अष्टसह पृ० १३८ ) के "ततो यावन्ति पररूपाणि तावन्त्येव प्रत्यात्मं स्वभावान्तराणि” इस अंश से शब्द तथा अर्थदृष्ट्या तुलनीय है ।
६ - प्रमाणवार्तिक की आलोचना तथा तुलना के लिए उपयोगी अवतरण न्यायविनिश्चयादि ग्रन्थों में प्रचुर रूप से पाए जाते हैं । ये सब अवतरण प्रस्तुतग्रन्थत्रय के टिप्पणों में संगृहीत किए हैं। देखो - लघी० टिं० पृ० १३१-१३३, १३६-१३१, १४१, १४२, १४६, १४७, १५२ तथा न्यायविनिश्चय टि० पृ० १५५ - १५७, १५६ - १७० में आए हुए प्रमाणवार्तिक के अवतरण ।
प्रज्ञाकरगुप्त और कलंक - धर्मकीर्ति के टीकाकारों में प्रज्ञाकरगुप्त एक मर्मज्ञ टीकाकार हैं । ये केवल टीकाकार ही नहीं हैं किन्तु कुछ अपने स्वतन्त्र विचार भी रखते हैं । इनका समय अभी तक पूर्ण रूप से निश्चित नहीं है । डॉ० सतीशचन्द्र विद्याभूषण उन्हें १० वीं सदी का विद्वान् बताते हैं । मिक्षु राहुल सांकृत्यायनजी ने टिबेटियन गुरुपरम्परा के अनुसार इनका समय सन् ७०० दिया है । इनका नामोल्लेख अनन्त. वीर्य सिद्धिविनिश्चयटीका में, विद्यानन्द अष्टसहस्री में, तथा प्रभाचन्द्र प्रमेयकमलमार्त्तण्ड में करते हैं । जयन्तभट्ट ने (न्यायमं० पृ० ७४ ) जिनका समय ईस्वी ८ वीं का मध्य भाग है, इनके वार्तिकालंकार के " एकमेवेदं संविद्रूपं हर्षविषादाद्यनेकाकारविवर्त्तं पश्यामः तत्र यथेष्टं संज्ञाः क्रियन्ताम् ” इस वाक्य का खंडन किया है। अतः इनका समय ८ वीं सदी का प्रारम्भिक भाग तो होना ही चाहिये । इत्सिंग ने अपने यात्रा विवरण में एक प्रज्ञागुप्त नाम के विद्वान् का उल्लेख करते हुए लिखा है कि- " प्रज्ञागुप्त (मतिपाल नहीं ) ने सभी विपक्षी मतों का खंडन करके सच्चे धर्म का प्रतिपादन किया ।" हमारे विचार से इत्सिंग के द्वारा प्रशंसित प्रज्ञागुप्त दूसरे व्यक्ति नहीं हैं । वे वार्तिकालंकार के रचयिता प्रज्ञाकरगुप्त ही हैं; क्योंकि इनके वार्तिकालंकार में विपक्ष खंडन का भाग अधिक है । इस तरह सन् ६९१ - ९२ में लिखे गए यात्रा विवरण में प्रज्ञाकरगुप्त का नाम
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