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________________ प्रस्तावना धर्मकीर्ति-अकलङ्क ] २५ अर्थात्-जब शारीरिक असामर्थ्य के कारण आप दस हाथ भी ऊँचा नहीं कूद सकते तब दूसरों से हजार योजन कूदने की आशा करना व्यर्थ है। क्योंकि अमुक मर्यादा से ऊँचा कूदने में शारीरिकगुरुत्व बाधक होता है। ३-कुमारिल ने जैनसम्मत केवलज्ञान की उत्पत्ति को आगमाश्रित मानकर यह अन्योन्याश्रय दोष दिया है कि-'केवलज्ञान हुए बिना आगम की सिद्धि नहीं हो सकती तथा आगम सिद्ध हुए बिना केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती' "एवं यैः केवलज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः। सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकल्पितम्। "नर्ते तदागमात्सिद्ध्येत् न च तेनागमो विना ।" [ मी० श्लो० पृ० ८७] अकलंकदेव न्यायविनिश्च (का० ४१२-१३) में मीमांसाश्लोकवार्तिक के शब्दों को ही उद्धृत कर इसका उत्तर यह देते हैं कि-सर्वज्ञ और आगम की परम्परा अनादि है। इस पुरुष को केवलज्ञान पूर्व आगम से हुआ तथा उस आगम की उत्पत्ति तत्पूर्व सर्वज्ञ से । यथा"एवं यत्केवलज्ञानमनुमानविजृम्भितम् । नर्ते तदागमात्सिद्ध्येत् न च तेन विनागमः ॥ सत्यमर्थबलादेव पुरुषातिशयो मतः । प्रभवः पौरुषेयोस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते ॥" शाब्दिक तुलना "पुरुषोऽभ्युपगन्तव्यः कुण्डलादिषु सर्पवत् ।" [ मी० श्लो० पृ० ६२५] "प्रत्यक्षप्रतिसंवेद्यः कुण्डलादिषु सर्पवत् ।" [ न्यायवि० का० ११७ ] "तदयं भावः स्वभावेषु कुण्डलादिषु सर्पवत् ।" [ प्रमाणसं० पृ० ११२] धर्मकीर्ति और अकलंक-अकलंक ने धर्मकीर्ति की केवल मार्मिक समालोचना ही नहीं की है, किन्तु परपक्ष के खंडन में उनका शाब्दिक और आर्थिक अनुसरण भी किया है। अकलंक के साहित्य का बहुभाग बौद्धों के खंडन से भरा हुआ है। उसमें जहां धर्मकीर्ति के पूर्वज दिग्नाग आदि विद्वानों की समालोचना है वहां धर्मकीर्ति के उत्तरकालीन प्रज्ञाकर तथा कर्णकगोमि आदि के विचारों का भी निरसन किया गया है। अकलंक और धर्मकीर्ति की पारस्परिक तुलना कुछ उद्धरणों द्वारा स्पष्ट रूप से नीचे की जाती है १-धर्मकीर्ति के सन्तानान्तरसिद्धि प्रकरण का पहिला श्लोक यह है"बुद्धिपूर्वां क्रियां दृष्ट्वा स्वदेहे ऽन्यत्र तद्ग्रहात् । मन्यते बुद्धिसद्भावं सा न येषु न तेषु धीः ॥" अकलंकदेव ने राजवार्तिक (पृ. ११) में इसे 'तदुक्तम्' लिख कर उद्धृत किया है, तथा सिद्धिविनिश्चय ( द्वितीय परि० ) में तो 'ज्ञायते बुद्धिरन्यत्र अभ्रान्तैः पुरुषैः कचित्' इस हेरफेर के साथ मूल में ही शामिल करके इसकी समोलचना की है। २-हेतुबिन्दु प्रथमपरिच्छेद का "अर्थक्रियार्थी हि सर्वः प्रेक्षावान् प्रमाणमप्रमाणं वाऽन्वेषते" यह वाक्य लघीयस्त्रय की स्वोपज्ञविवृति (पृ. ३) में मूलरूप से पाया जाता है । हेतुबिन्दु की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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