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________________ अकलङ्कग्रन्थत्रय [प्रन्थकार समयनिर्णय में खास उपयोगी होगी। इसलिए अकलंक के साथ उक्त आचार्यों की तुलना क्रमशः की जाती है __ भर्तृहरि और अकलंक-भर्तृहरि के स्फोटवाद की आलोचना के सिलसिले में अकलंक देव ने अपने तत्त्वार्थराजवार्तिक ( पृ० २३१ ) में वाक्यपदीय की ( १७६) "इन्द्रियस्यैव संस्कारः शब्दस्योभयस्य वा ।" इस कारिका में वार्णत इन्द्रियसंस्कार, शब्दसंस्कार तथा उभयसंस्कार रूप तीनों पक्षों का खंडन किया है। राजवार्तिक ( पृ० ४० ) में वाक्यपदीय की “शास्त्रेषु प्रक्रियाभेदैरविद्यैवोपवर्ण्यते" [ वाक्यप० २।२३५ ] यह कारिका उद्धृत की गई है । सिद्धिविनिश्चय (सिद्धिवि० टी० पृ० ५४६ से ) के शब्दसिद्धि प्रकरण में भी स्फोटवाद का खंडन है। शब्दाद्वैतवाद का खंडन भी सिद्धिविनिश्चय में ( टी० पृ० ४५८ से ) किया गया है। कुमारिल और अकलंक-अकलंकदेव के ग्रन्थों में कुमारिल के मन्तव्यों के आलोचन के साथ ही साथ कुछ शब्दसादृश्य भी पाया जाता है१-कुमारिल सर्वज्ञका निराकरण करते हुए लिखते हैं कि “प्रत्यक्षाद्यविसंवादि प्रमेयत्वादि यस्य च । सद्भाववारणे शक्तं को नु तं कल्पयिष्यति ॥” [ मी० श्लो० पृ० ८५ ] अर्थात्-जब प्रत्यक्षादिप्रमाणों से अबाधित प्रमेयत्वादि हेतु ही सर्वज्ञ का सद्भाव रोक रहे हैं तब कौन उसे सिद्ध करने की कल्पना भी कर सकेगा ? अकलंकदेव इसका प्रतिवन्दि उत्तर अपनी अष्टशती ( अष्टसह, पृ० ५८ ) में देते हैं कि-"तदेवं प्रमेयत्वसत्त्वादिर्यत्र हेतुलक्षणं पुष्णाति तं कथं चेतनः प्रतिषडुमर्हति संशयितुं वा" अर्थात् जब प्रमेयत्व और सत्त्व आदि अनुमेयत्व हेतु का पोषण कर रहे हैं तब कौन चेतन उस सर्वज्ञ का प्रतिषेध या उसके सद्भाव में संशय कर सकता है ? २ तत्त्वसंग्रहकार शान्तरक्षित के लेखानुसार कुमारिल ने सर्वज्ञनिराकरण में यह कारिका भी कही है कि-- "दश हस्तान्तरं व्योम्नो यो नामोत्प्लुत्य गच्छति । न योजनशतं गन्तुं शक्तोऽभ्याशतैरपि ॥" [ तत्त्वसं० पृ० ८२६ ] अर्थात्-यह संभव है कि कोई प्रयत्नशील पुरुष अभ्यास करने पर अधिक से अधिक १० हाथ ऊँचा कूद जाय; पर सैकड़ों वर्षों तक कितना भी अभ्यास क्यों न करे वह १०० योजन ऊँचा कभी भी नहीं कूद सकता । इसी तरह कितना भी अभ्यास क्यों न किया जाय ज्ञान का प्रकर्ष अतीन्द्रियार्थ के जानने में नहीं हो सकता । अकलंकदेव सिद्धिविनिश्चय (टीका पृ० ४२५ B.) में इसका उपहास करते हुए लिखते हैं कि"दश हस्तान्तरं व्योम्नो नोत्लवेरन् भवादृशः । योजनानां सहस्रं किं वोत्प्लवेदधुना नरैः।।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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