________________
प्रस्तावना
धर्मकीर्ति का समय ] का एक प्रधान ग्रन्थ है। वह इतना परिष्कृत एवं हेतुविद्या पर सर्वाङ्गीण प्रकाश डालनेवाला है कि केवल उसीके अध्ययन से हेतुविद्या का पर्याप्त ज्ञान हो सकता है।
इत्सिंग के द्वारा धर्मपाल, गुणमति, स्थिरमति आदि के साथ ही साथ धर्मकीर्ति तथा धर्मकीर्ति के टीकाकार शिष्य प्रज्ञागुप्त का नाम लिए जाने से यह मालूम होता है किउसका उल्लेख किसी खास समय के लिए नहीं है किन्तु एक ८० वर्ष जैसे लम्बे समय वाले युग के लिए है । इससे यह भी ज्ञात होता है कि-धर्मकीर्ति इत्सिंग के यात्राविवरण लिखने तक जीवित थे। यदि राहुलजी की कल्पनानुसार धर्मकीर्ति की मृत्यु हो गई होती तो इत्सिंग जिस तरह भर्तृहरि को धर्मपाल का समकालीन लिखकर उनकी मृत्यु के विषय में भी लिखता है कि-'उसे मरे हुए अभी ४० वर्ष हो गए' उसी तरह अपने प्रसिद्ध ग्रन्थकार धर्मकीर्ति की मृत्यु पर भी आँसू बहाए बिना न रहता।
__ यद्यपि इत्सिंग धर्मकीर्ति को हेतुविद्या के सुधारक रूप से लिखता है; परन्तु वह हेतुविद्या में पाण्डित्य प्राप्त करने के लिये पठनीय शास्त्रों की सूची में हेतुद्वारशास्त्र, हेत्वाभासद्वार, न्यायद्वार, प्रज्ञप्तिहेतु, एकीकृत अनुमानों पर शास्त्र, आदि ग्रन्थों का ही नाम लेता है, धर्मकीर्ति के किसी भी प्रसिद्ध ग्रन्थ का नाम नहीं लेता। इसके ये कारण हो सकते हैं-इत्सिंग ने अपना यात्रा विवरण चाइनी भाषा में लिखा है अतः अनुवादकों ने जिन शब्दों का हेतुद्वार न्यायद्वार तथा हेत्वाभासद्वार अनुवाद किया है उनका अर्थ हेतुबिन्दु और न्यायबिन्दु भी हो सकता हो । अथवा धर्मकीर्ति को हेतुविद्या के सुधारक रूप में जानकर भी इत्सिंग उनके ग्रन्थों से परिचित न हो। अथवा उस समय धर्मकीर्ति के ग्रन्थों की अपेक्षा अन्य आचार्यों के ग्रन्थ नालन्दा में विशेषरूप से पठन पाठन में आते होंगे।
इस विवेचन से हमारा यह निश्चित विचार है कि-भर्तृहरि ( सन् ६०० से ६५०) के साथ ही साथ उसके आलोचक कुमारिल ( सन् ६२० से ६८०) की भी आलोचना करने वाले, तथा प्रमाणवार्तिक, न्यायबिन्दु, हेतुबिन्दु, प्रमाणविनिश्चय, सन्तानान्तरसिद्धि, वादन्याय, सम्बन्ध परीक्षा आदि ६ प्रौढ़, विस्तृत और सटीक प्रकरणों के रचयिता धर्मकीर्ति की समयावधि सन् ६३५-६५० से आगे लम्बानी ही होगी। और वह अवधि सन् ६२० से ६१० तक रखनी समुचित होगी । इससे हुएनसांग के द्वारा धर्मकीर्ति के नाम का उल्लेख न होने का, तथा इत्सिंग द्वारा होनेवाले उल्लेख का वास्तविक अर्थ भी संगत हो जाता है। तथा तिब्बतीय इतिहासलेखक तारानाथ का धर्मकीर्ति को तिब्बत के राजा स्रोङ् त्सन् गम् पो का, जिसने सन् ६२६ से ६८६ तक राज्य किया था, समकालीन लिखना भी युक्तियुक्त सिद्ध हो जाता है।
__ अकलंकदेव ने भतृहरि कुमारिल तथा धर्मकीर्ति की समालोचना के साथ ही साथ प्रज्ञाकरगुप्त, कर्णकगोमि, धर्मोत्तर आदि के विचारों का भी आलोचन किया है। इन सब आचार्यों के ग्रन्थों के साथ अकलंक के ग्रन्थों की आन्तरिक तुलना अकलंक के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org