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२२ अकलङ्कग्रन्थत्रय
[ ग्रन्थकार पूर्वकालीन नागार्जुन या वसुबन्धु आदि का लिया है। तर्कशास्त्र से प्रेम न होने पर भी गुणमति स्थिरमति जैसे विज्ञानवादी तार्किकों का नाम जब हुएनसांग लेता है तब धर्मकीर्ति ने तो बौद्धदर्शन के विस्तार में उनसे कहीं अधिक एवं ठोस प्रयत्न किया है। इसलिए धर्मकीर्ति का नाम लिया जाना न्यायप्राप्त ही नहीं था, किन्तु हुएनसांग की सहज गुणानुरागिता का द्योतक भी था । यह ठीक है कि-हुएनसांग सबके नाम लेने को बाध्य नहीं था, पर धर्मकीर्ति ऐसा साधारण व्यक्ति नहीं था जिसकी ऐसी उपेक्षा अनजान में भी की जाती। फिर यदि धर्मकीर्ति का कार्यकाल गुणमति स्थिरमति आदि से पहिले ही समाप्त हुआ होता तो इनके ग्रन्थों पर धर्मकीर्ति की विशालग्रन्थराशि का कुछ तो असर मिलना चाहिए था। जो उनके ग्रन्थों का सूक्ष्म पर्यवेक्षण करने पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता । हुएनसांग ने एक जिनमित्र नामके आचार्य का भी उल्लेख किया है । इत्सिंग के “धर्मकीर्ति ने 'जिन' के पश्चात् हेतुविद्या को और सुधारा" इस उल्लेख के अनुसार तो यह स्पष्ट मालूम हो जाता है कि धर्मकीर्ति का कार्यकाल 'जिन' के पश्चात् था; क्योंकि हुएनसांग के 'जिनमित्र' और इत्सिंग के 'जिन' एक ही व्यक्ति मालुम होते हैं । अतः यही उचित मालुम होता है कि-धर्मकीर्ति उस समय युवा थे जब हुएनसांग ने अपना यात्राविवरण लिखा ।
दूसरा चीनी यात्री इत्सिंग था। इसने सन् ६७१ से ६६५ तक भारतवर्ष की यात्रा की। यह सन् ६७५ से ६८५ तक दस वर्ष नालन्दा विश्वविद्यालय में रहा । इसने अपना यात्रावृत्तान्त सन् ६९१-९२ में लिखा है। इसिंग ने नालन्दा विश्वविद्यालय की शिक्षाप्रणाली आदि का अच्छा वर्णन किया है। वह विद्यालय के लब्धप्रतिष्ठ स्नातकों की चर्चा के सिलसिले में लिखता है कि-"प्रत्येक पीढ़ी में ऐसे मनुष्यों में से केवल एक या दो ही प्रकट हुआ करते हैं जिनकी उपमा चाँद या सूर्य से होती है और उन्हें नाग और हाथी की तरह समझा जाता है । पहिले समय में नागार्जुनदेव, अश्वघोष, मध्यकाल में वसुबन्धु, असङ्ग, संघभद्र और भवविवेक, अन्तिम समय में जिन, धर्मपाल, धर्मकीर्ति, शीलभद्र, सिंहचन्द्र, स्थिरमति, गुणमति, प्रज्ञागुप्त, गुणप्रभ, जिनप्रभ ऐसे मनुष्य थे ।" ( इत्सिंग की भारतयात्रा पृ० २७७ ) इत्सिंग (पृ० २७८ ) फिर लिखते हैं कि"धर्मकीर्ति ने 'जिन' के पश्चात् हेतुविद्या को और सुधारा । प्रज्ञागुप्त ने (मतिपाल नहीं) सभी विपक्षी मतों का खंडन करके सच्चे धर्म का प्रतिपादन किया ।" इन उल्लेखों से मालूम होता है कि- सन् ६९१ तक में धर्मकीर्ति की प्रसिद्धि ग्रन्थकार के रूप में हो रही थी। इत्सिंग ने धर्मकीर्ति के द्वारा हेतुविद्या के सुधारने का जो वर्णन किया है वह सम्भवतः धर्मकीर्ति के हेतुबिन्दु ग्रन्थ को लक्ष्य में रखकर किया गया है, जो हेतुविद्या १ दिग्नागके प्रमाणसमुच्चय पर जिनेन्द्रविरचित टीका उपलब्ध है। संभव है ये जिनेन्द्र ही
हुएनसांग के जिनमित्र हों।
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