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अकलङ्कप्रन्थत्रय
[प्रन्थकार ३-धर्मकीर्ति ने सुगत की सर्वज्ञता के समर्थन में अपनी शक्ति न लगाकर धर्मज्ञत्व का समर्थन ही किया है । पर प्रज्ञाकर धर्मज्ञत्व के साथ ही साथ सर्वज्ञत्व का भी समर्थन करते हैं । सर्वज्ञत्व के समर्थन में वे 'सत्यस्वप्नज्ञान' का दृष्टान्त भी देते हैं । यथा
"इहापि सत्यस्वप्नदर्शिनोऽतीतादिकं संविदन्त्येव" [ वार्तिकालंकार पृ० ३९६ ]
४-पीतशंखादिज्ञानों के द्वारा अर्थक्रिया नहीं होती, अतः वे प्रमाण नहीं हैं, पर संस्थानमात्र अंश से होने वाली अर्थक्रिया तो उनसे भी हो सकती है, अतः उस अंश में उन्हें अनुमानरूप से प्रमाण मानना चाहिए, तथा अन्य अंश में संशयरूप । इस तरह इस एक ज्ञान में आंशिक प्रमाणता तथा आंशिक अप्रमाणता है । यथा
"पीतशंखादिविज्ञानं तु न प्रमाणमेव तथार्थक्रियाव्याप्तेरभावात् । संस्थानमात्रार्थक्रियाप्रसिद्धावन्यदेव ज्ञानं प्रमाणमनुमानम् ; तथाहि'प्रतिभास एवम्भूतो यः स न संस्थानवर्जितः । एवमन्यत्र दृष्टत्वादनुमानं तथा च तत् ॥' ततोऽनुमानं संस्थाने, संशयः परत्रेति प्रत्ययद्वयमेतत् प्रमाणमप्रमाणं च, अनेन मणिप्रभायां मणिज्ञानं व्याख्यातम् ।" [ वार्तिकालंकार पृ० ६]
अकलंकदेव ने प्रज्ञाकरगुप्त के उक्त सभी सिद्धान्तों का खंडन किया है। यथा
१-अकलंकदेव ने सिद्धिविनिश्चय में जीव का स्वरूप बताते हुए 'अभिन्नः संविदात्मार्थः स्वापप्रबोधादौ' विशेषण दिया है । इसका तात्पर्य है कि स्वाप और प्रबोध तथा मरण और जन्म आदि में जीव अभिन्न रहता है, उसकी सन्तान विच्छिन्न नहीं होती। इसीका व्याख्यान करते हुए उन्होंने लिखा है कि-'तदभावे मिद्धादेरनुपपत्तेः' यदि सुप्तादि अवस्थाओं में ज्ञान का प्रभाव माना जायगा तो मिद्ध-अतिनिद्रा मूर्छा आदि नहीं बन सकेंगी; क्योंकि सर्वथा ज्ञान का अभाव मानने से तो मृत्यु ही हो जायगी। मूर्छा और अतिनिद्रा व्यपदेश तो ज्ञानका सद्भाव मानने पर ही हो सकता है। हाँ, उन अवस्थाओं में ज्ञान तिरोहित रहता है। अनन्तवीर्याचार्य 'तदभावे मिद्धादेरनुपपत्तेः' वाक्य का व्याख्यान निम्नरूप से करते हैं-"ननु स्वापे ज्ञानं नास्त्येव इति चेदत्राह'तदभाव इत्यादि'..."ज्ञानस्य असति मिद्धादे: अनुपपत्तः इति । मिद्धो निद्रा आदिः यस्य मूर्छादेः तस्यानुपपत्तेः मरणोपपत्तेः अवस्थाचतुष्टयाभावः तदवस्थ एव ।" [ सिद्धिवि० टी० पृ० ५७६ A.] इस उद्धरण से स्पष्ट है कि-अकलंकदेव सुषुप्तावस्था में ज्ञान नहीं मानने वाले प्रज्ञाकर का खंडन करते हैं । अत एव वे न्यायविनिश्चय ( का० २२२ ) में भी जीवस्वरूप का निरूपण करते हुए 'सुषुप्तादौ बुद्धः' पद देते हैं । इसके अतिरिक्त व्यवहितकारणवाद पर भी उन्होंने आक्षेप किया है । (देखो सिद्धिवि० टी० पृ० १६१ A. )
___ इसके सिवाय अकलंकदेव सिद्धिविनिश्चय प्रथमपरिच्छेद में स्पष्टरूप से लिखते हैं कि-" न हि स्वापादौ चित्तचैतसिकानामभावं प्रतिपद्यमानान् प्रमाणमस्ति" अर्थात्जो लोग स्वापादि अवस्थाओं में निर्विकल्पक और सविकल्पकज्ञान का प्रभाव मानते
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