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कुमारिल-धर्मकीर्ति ]
प्रस्तावना "अविभागोऽपि बुद्ध्यात्मा विपर्यासितदर्शनैः ।
ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते ॥” [प्रमाणवा० २।३५४] इससे यह मालूम होता है कि कुमारिल धर्मकीर्ति के बाद हुए हैं।"
__ डॉ० पाठक जिन इलोकों की व्याख्या में सुचरितमिश्र द्वारा 'अविभागोऽपि ' श्लोक उद्धृत किए जाने का जिक्र करते हैं, वे श्लोक ये हैं
“मत्पक्षे यद्यपि स्वच्छो ज्ञानात्मा परमार्थतः । तथाप्यनादौ संसारे पूर्वज्ञानप्रसूतिभिः ॥ चित्राभिश्चित्रहेतुत्वाद्वासनाभिरुपप्लवात् । स्वानुरूपेण नीलादिग्राह्यग्राहकदूषितम् ॥ प्रविभक्तमिवोत्पन्नं नान्यमर्थमपेक्षते ।" मी० श्लो० शून्यवाद श्लो० १५-१७]
इन श्लोकों की व्याख्या में न केवल सुचरितमिश्र ने ही किन्तु पार्थसारथिमिश्र ने भी 'अविभागोऽपि' श्लोक को उद्धृत कर बौद्धमत का पूर्वपक्ष स्थापित किया है । पर इन श्लोंकों की शब्दावली का ध्यान से पर्यवेक्षण करने पर ज्ञात होता है कि-ग्रन्थकार इन श्लोकों को सीधे तौर से पूर्वपक्ष के किसी ग्रन्थ से उठाकर उद्धृत कर रहा है । इनकी शब्दावली 'अविभागोऽपि' श्लोक की शब्दरचना से करीब करीब बिलकुल भिन्न है । यद्यपि आर्थिक दृष्टि से 'अविभागोऽपि' श्लोक की संगति 'मत्पक्षे' आदि श्लोकों से ठीक बैठ सकती है; पर यह विषय स्वयं धर्मकीर्ति द्वारा मूलतः नहीं कहा गया है । धर्मकीर्ति के पूर्वज आचार्य वसुवन्धु आदि ने विंशतिकाविज्ञप्तिमात्रता और त्रिंशतिकाविज्ञप्तिमात्रतासिद्धि आदि ग्रन्थों में बड़े विस्तार से उक्त विषय का स्थापन किया है। दिग्नाग के जिस प्रमाणसमुच्चय पर धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक वृत्ति रची है उस में तो इसका विवेचन होगा ही। स्थिरमति आदि विज्ञानवादियों ने वसुबन्धु की त्रिंशतिकाविज्ञप्तिमात्रतासिद्धि पर भाष्य आदि रचके उक्त मत को पूरी पूरी तौर से पल्लवित किया है । धर्मकीर्ति तो उक्त मत के अनुवादक हैं । अतः सुचरितमिश्र या पार्थसारथिमिश्र के द्वारा उद्धृत श्लोक के बल पर कुमारिल को धर्मकीर्ति का समालोचक नहीं कहा जा सकता ।
अब मैं कुछ ऐसे स्थल उद्धृत करता हूँ जिनसे यह निर्धारित किया जा सकेगा कि धर्मकीर्ति ही कुमारिल का खण्डन करते हैं
१-कुमारिल ने शावरभाष्यके 'धर्मे चोदनैव प्रमाणम्' इस वाक्य को ध्यान में रखकर अपने द्वारा किए गए सर्वज्ञत्वनिराकरण का एक ही तात्पर्य बताया है कि__ "धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥" अर्थात्-सर्वज्ञत्व के निराकरण का तात्पर्य है धर्मज्ञत्व का निषेध । धर्म के सिवाय अन्य सब पदार्थों के जाननेवाले का निषेध यहाँ प्रस्तुत नहीं है ।
धर्मकीर्ति प्रमाणवार्तिक (१-३१-३५) में ठीक इससे विपरीत सुगत की धर्मज्ञता
१ यह श्लोक कुमारिल के नाम से तत्वसंग्रह (पृ० ८१७) में उद्धृत है।
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