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अकलङ्कग्रन्थत्रय
[ ग्रन्थकार ८ वीं का पूर्वभाग मानते थे। धर्मकीर्ति का समय आगे सन् ६२० से ६६० तक निश्चित किया जायगा। अतः कुमारिल का समय सन् ६०० से ६८० तक मानना ही समुचित होगा।
भर्तृहरि और धर्मकीर्ति कुमारिल की तरह धर्मकीर्ति ने भी भर्तृहरि के स्फोटवाद तथा उन के अन्य विचारों का खंडन अपने प्रमाणवार्तिक तथा उसकी स्वोपज्ञवृत्ति में किया है । यथा
१-धर्मकीर्ति स्फोटवाद का खंडन प्रमाणवार्तिक ( ३।२५१ से ) में करते हैं। २-भर्तृहरि की-"नादेनाहितबीजायामन्त्येन ध्वनिना सह ।
आवृत्तिपरिपाकायां बुद्धौ शब्दोऽवभासते ॥" [वाक्यप०१।८५] इस कारिका में वर्णित वाक्यार्थबोधप्रकार का खंडन धर्मकीर्ति प्रमाणवार्तिक स्वोपज्ञवृत्ति ( ३०२५३ ) में इस प्रकार उल्लेख कर के करते हैं
___ "समस्तवर्णसंस्कारवत्या अन्त्यया बुद्ध्या वाक्यावधारणमित्यपि मिथ्या ।" अतः धर्मकीर्ति का समय भर्तृहरि के अनन्तर मानने में कोई सन्देह नहीं है ।
कुमारिल और धर्मकीर्ति-डॉ० विद्याभूषण आदि को विश्वास था कि कुमारिल ने धर्मकीर्ति की आलोचना की है। मद्रास युनि० से प्रकाशित बृहती के द्वितीय भाग की प्रस्तावना में प्रो. रामनाथ शास्त्री ने उक्त मन्तव्य की पुष्टि के लिये मीमांसाश्लोकवार्तिक के ४ स्थल ( मी० श्लो० पृ० ६६ श्लो० ७६, पृ० ८३ श्लो० १३१, पृ० १४४ श्लो० ३६, पृ० २५० श्लो० १३१) भी खोज निकाले हैं । मालूम होता है कि-इन स्थलों की पार्थसारथिमिश्र विरचित न्यायरत्नाकर व्याख्या में जो उत्थान वाक्य दिए हैं, उन्हीं के आधार से ही प्रो० रामनाथ जी ने उन श्लोकों को धर्मकीर्ति के मतखंडनपरक समझ लिया है। यहाँ पार्थसारथिमिश्र की तरह, जो कुमारिल से ४-५ सौ वर्ष बाद हुए हैं, शास्त्रीजी भी भ्रम में पड़ गए हैं। क्योंकि उन श्लोकों में कोई भी शब्द ऐसा नहीं है जिसके बल पर उन श्लोकों का अर्थ साक्षात् धर्मकीर्ति के मतखंडनपरक रूप में लगाया जा सके। ४-५ सौ वर्ष बाद हुए टीकाकार को, जिसकी दृष्टि ऐतिहासिक की अपेक्षा तात्त्विक अधिक है ऐसा भ्रम होना स्वाभाविक है। इसी तरह डॉ० पाठक का यह लिखना भी अभ्रान्त नहीं है कि-" मीमांसा श्लोकवार्तिक के शून्यवाद प्रकरण में कुमारिल ने बौद्धमत के 'बुद्ध्यात्मा ग्राह्य ग्राहक रूप से भिन्न दिखाई देता है' इस विचार का खंडन किया है । श्लोकवातिक की व्याख्या में इस स्थान पर सुचरितमिश्र धर्मकीर्ति का निम्न श्लोक, जिसको शंकराचार्य और सुरेश्वराचार्य ने भी उद्धृत किया है, बारम्बार उद्धृत करते हैं
१ यह उद्धरण न्यायकुमुदचन्द्र को प्रस्तावना से लिया है।
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