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________________ भर्तृहरि-कुमारिल ] प्रस्तावना अकलंक का उल्लेख, वीरसेन द्वारा राजवार्तिक के अवतरण लिये जाना आदि ऐसे रबरप्रकृतिक प्रमाण हैं, जिन्हें खींचकर कहीं भी बिठाया जा सकता है। अतः उनकी निराधार खींचतान में मैं अपना तथा पाठकों का समय खर्च नहीं करूंगा। $ ३. अकलंक के ग्रन्थों की तुलना ___ हमें अकलंक के ग्रन्थों के साथ जिन आचार्यों के ग्रन्थों की तुलना करना है उनके पारस्परिक पौर्वापर्य एवं समय के निर्णय की खास आवश्यकता है। अतः तुलना लिखने के पहिले उन खास खास आचार्यों के पौर्वापर्य तथा समय के विषय की आवश्यक सामग्री प्रस्तुत की जाती है। इसमें प्रथम भर्तृहरि, कुमारिल, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर, धर्मोत्तर, कर्णकगोमि, शान्तरक्षित आदि आचार्यों के समय आदि का विचार होगा फिर इनके साथ अकलंक की तुलना करके अकलंकदेव का समय निर्णीत होगा। भतेहरि और कुमारिल-इत्सिंग के उल्लेखानुसार भर्तृहरि उस समय के एक प्रसिद्ध वैयाकरण थे। उस समय इनका वाक्यविषयकचर्चावाला वाक्यपदीय ग्रन्थ प्रसिद्ध था। इत्सिंग ने जब (सन् ६९१) अपना यात्रा वृत्तान्त लिखा तब भर्तृहरि की मृत्यु हुए ४० वर्ष हो चुके थे। अतः भर्तृहरि का समय सन् ६००-६५० तक सुनिश्चित है । भर्तृहरि शब्दाद्वैत दर्शन के प्रस्थापक थे। मीमांसकधुरीण कुमारिल ने भर्तृहरि के वाक्यपदीय से अनेकों श्लोक उद्धृत कर उनकी समालोचना की है। यथा "अस्त्यर्थः सर्वशब्दानामिति प्रत्याय्यलक्षणम् । अपूर्वदेवतास्वर्गः सममाहुर्गवादिषु ॥" [ वाक्यपदीय २।१२१ ] तन्त्रवार्तिक (पृ० २५१-२५३ ) में यह श्लोक दो जगह उद्धृत होकर आलोचित हुआ है । इसी तरह तन्त्रवार्तिक (पृ. २०१-१०) में कुमारिल ने वाक्यपदीय के "तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति व्याकरणाहते" ( वाक्यप० ११७ ) अंश को उद्धृत कर उसका खंडन किया है। मीमांसाश्लोकवार्तिक ( वाक्याधिकरण श्लोक ५१ से) में वाक्यपदीय ( २।१-२ ) में आए हुए दशविध वाक्यलक्षणों का समालोचन किया है । भर्तृहरि के स्फोटवाद की भी आलोचना कुमारिल ने ( मी० श्लो० स्फोटवाद ) बड़ी प्रखरता से की है । डॉ० के. बी. पाठक ने यह निर्धारित किया है कि-कुमारिल इसवी सन् की ८ वीं शताब्दी के पूर्वभाग में हुए हैं। डॉ० पाठक के द्वारा अन्विष्ट प्रमाणों से इतना तो स्पष्ट है कि कुमारिल भर्तृहरि ( सन् ६५०) के बाद हुए हैं । अतः कम से कम उनका कार्यकाल सन् ६५० के बाद तो होगा; पर वे इतने बाद तो कभी नहीं हो सकते। मेरे ‘धर्मकीर्ति और कुमारिल' के विवेचन से यह स्पष्ट हो जायगा कि-कुमारिल भर्तृहरि के बाद होकर भी धर्मकीर्ति के कुछ पूर्व हुए हैं; क्योंकि धर्मकीर्ति ने कुमारिल के विचारों का खंडन किया है । डॉ० पाठक कुमारिल और धर्मकीर्ति के पारस्परिक पौर्वापर्य के विषय में अभ्रान्त नहीं थे। यही कारण है कि-वे कुमारिल का समय ई० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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