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आलोचना]
प्रस्तावना चूर्णि के रचनाकाल का पूरा निश्चय नहीं है। यद्यपि नन्दीचूर्णि की प्राचीन और विश्वसनीय प्रति में उसका रचनासमय शक ५१८ (ई० ६७६) दिया है पर इसके कर्ता जिनदासगणिमहत्तर हैं यह अभी संदिग्ध है । इसके कारण ये हैं
१-अभी तक परम्परागत प्रसिद्धि ही ऐसी चली आ रही है कि नन्दीचूर्णि जिनदास की है, पर कोई साधकप्रमाण नहीं मिला। भाण्डारकर प्राच्यविद्यासंशोधन मन्दिर के जैनागम कैटलॉग में प्रो० H.R. कापड़िया ने स्पष्ट लिखा है कि-नन्दीचूर्णि के कर्ता जिनदास हैं यह प्रघोषमात्र है।
२-निशीथचूर्णि की तरह नन्दीचूर्णि के अन्त में जिनदास ने अपना नाम नहीं दिया। ३-नन्दीचूर्णि के अन्त में पाई जाने वाली"णिरेण गामेत्त महासहा जिता, पसूयती संख जगद्धिताकुला।
कमद्धिता वीसंत चिंतितक्खरो फुडं कहेयं अमिहाणकम्मुणा ॥" इस गाथा के अक्षरों को लौट पलटने पर भी 'जिनदास' नाम नहीं निकलता।
४-नन्द्यध्ययन टीका के रचयिता प्राचार्य मलयगिरि को भी चूर्णिकार का नाम नहीं मालुम था; क्योंकि वे अपनी टीका में पूर्वटीकाकार प्राचार्यों का स्मरण करते समय हरिभद्रसूरि का तो नाम लेकर स्मरण करते हैं जब कि हरिभद्र के द्वारा आधार रूप से अवलम्बित चूर्णि के रचयिता का वे नामोल्लेख नहीं करके 'तस्मै श्रीचूर्णिकृते नमोऽस्तु' इतना लिखकर ही चुप हो जाते हैं। इसलिए यह स्पष्ट है कि-आचार्य मलयगिरि चूर्णिकार के नाम से अपरिचित थे; अन्यथा वे हरिभद्र की तरह चूर्णिकार का नाम लिये बिना नहीं रहते।
अतः जब नन्दीचूर्णि की और निशीथचूर्णि की एककर्तृकता ही अनिश्चित है तब नन्दीचूर्णि के समय से निशीथचूर्णि के समय का निश्चय नहीं किया जा सकता। इस तरह अनिश्चितसमयवाला निशीथचूर्णि का सिद्धिविनिश्चय वाला उल्लेख अकलंक का समय ई० ६७६ से पहिले ले जाने में साधक नहीं हो सकता ।
(२) अकलंकचरित के 'विक्रमार्क शकाब्द' वाले उल्लेख को हमें अन्य समर्थ प्रमाणों के प्रकाश में ही देखना तथा संगत करना होगा, क्योंकि अकलंकचरित १५ वी १६ वीं शताब्दी का ग्रन्थ है। यह अकलंक से करीब सात आठ सौ वर्ष बाद बनाया गया है। अकलंकचरित के कर्ता के सामने यह परम्परा रही होगी कि 'संवत्
१ भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर के जैनागम कैटलॉग (Part II. P. 302) मे मलयगिरिरचित लिखित तीन नन्दिसूत्र विवरणों का परिचय है। उनमें चूर्णिकार तथा हरिभद्र का निम्न श्लोकों में स्मरण किया है"नन्यध्ययनं पूर्व प्रकाशितं येन विषमभावार्थम् । तस्मै श्रीचूर्णिकृते नमोस्तु विदुषे परोपकृते ॥१॥ मध्ये समस्तभूपीठं यशो यस्याभिवर्द्धत । तस्मै श्रीहरिभद्राय नमष्टीकाविधायिने ॥२॥"
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