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अकलङ्कअन्यत्रय
[प्रन्थकार हमारी विचारसरणि-किसी एक आचार्य का या उसके ग्रन्थ का अन्य आचार्य समकालीन होकर भी उल्लेख और समालोचन कर सकते हैं, और उत्तरकालीन होकर भी। पर इस में हमें इस बात पर ध्यान रखना होगा कि उल्लेखादि करनेवाला श्राचार्य जैन है या जैनेतर । अपने सम्प्रदाय में तो जब मामूली से थोड़ा भी अच्छा व्यक्ति, जिसकी प्रवृत्ति इतरमत निरसन के द्वारा मार्गप्रभावना की ओर अधिक होती है, बहुत जल्दी ख्यात हो जाता है, तब असाधारण विद्वानों की तो बात ही क्या ? स्वसम्प्रदाय में प्रसिद्धि के लिये अधिक समय की आवश्यकता नहीं होती । अतः स्वसम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा पूर्वकालीन तथा समकालीन आचार्यों का उल्लेख किया जाना ठीक है। इतना ही नहीं; पर खसम्प्रदाय में तो किसी वृद्ध आचार्य द्वारा असाधारणप्रतिभाशाली युवक प्राचार्य का भी उल्लेख होना संभव है। पर अन्य सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा समालोचन या उल्लेख होने योग्य प्रसिद्धि के लिए कुछ समय अवश्य ही अपेक्षित होता है। क्योंकि १२-१३ सौ वर्ष पूर्व के साम्प्रदायिक वातावरण में असाधारण प्रसिद्धि के विना अन्य सम्प्रदाय के आचार्यों पर इस प्रकार की छाप नहीं पड़ सकती, जिससे वे उल्लेख करने में तथा समालोचन या अनुसरण करने में प्रवृत्त हों। अतः सम्प्रदायान्तर के उल्लेख या समालोचन करने वाले आचार्य से समालोच्य या उल्लेखनीय आचार्य के समय में समकालीन होने पर भी १५-२० वर्ष जितने समय का पौर्वापर्य मानना विशेष सयुक्तिक जान पड़ता है। यद्यपि इसके अपवाद मिल सकते हैं और मिलते भी हैं; पर साधारणतया यह प्रणाली सत्यमार्गोन्मुख होती है। दूसरे समानकालीन लेखकों के द्वारा लिखी गई विश्वस्त सामग्री के अभाव में ग्रन्थों के आन्तरिकपरीक्षण को अधिक महत्त्व देना सत्य के अधिक निकट पहुँचने का प्रशस्त मार्ग है। आन्तरिक परीक्षण के सिवाय अन्य बाह्य साधनों का उपयोग तो खींचतान करके दोनों ओर किया जा सकता है, तथा लोग करते भी हैं। मैं यहां इसी विचार पद्धति के अनुसार विचार करूँगा।
__ अकलंक के ग्रन्थों के आन्तरिक अवलोकन के आधार से मेरा विचार स्पष्टरूप से अकलंक के समय के विषय में डॉ. पाठक के मत की ओर ही अधिक मुकता है । हाँ, मेरी समर्थनपद्धति डॉ० पाठक की समर्थन पद्धति से भिन्न है। मैं पहिले विरोधी मत की उन एक दो खास युक्तियों की आलोचना करूँगा जिनके आधार पर उनका मत स्थिर है, फिर उन विचारों को विस्तार से लिखूगा जिनने मेरी मति डॉ. पाठक के मतसमर्थन की ओर झुकाई।
आलोचना-(१) निशीथचूर्णि में सिद्धिविनिश्चय का दर्शनप्रभावकरूप से उल्लेख है तो सही। यह भी ठीक है कि इसके कर्ता जिनदासगणिमहत्तर हैं, क्योंकि निशीथचूर्णि के अन्त में दी हुई गाथा से उनका नाम स्पष्टरूपसे निकल आता है। पर अभी इस
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