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________________ समय विचार ] १३ क्योंकि अमोघवर्ष के पहिले भी 'मान्यपुर, मान्यान्' आदि उल्लेख मिलते हैं । अथवा यह मान भी लिया जाय कि अमोघवर्ष ने ही मान्यखेट को प्रतिष्ठित किया था । तब भी इससे कथाकोश की बातें सर्वथा अप्रामाणिक नहीं कही जा सकती। इससे तो इतना ही कहा जा सकता है कि - कथाकोशकार के समय में राष्ट्रकूटवंशीय राजाओं की राजधानी आमतौर से मान्यखेट प्रसिद्ध थी और इसीलिये कथाकोशकार ने शुभतुंग की राजधानी भी मान्यखेट लिख दी है । यदि पुरुषोत्तम और लघुप्रव्व के एक ही व्यक्ति होने का अनुमान सत्य है तो कहना होगा कि कलंकदेव की जन्मभूमि मान्यखेट के ही आस पास होगी तथा पिता का असली नाम पुरुषोराम तथा प्रचलित नाम 'लघुक्रव' होगा । 'लघुप्रव्व' की जगह 'लघुहव्व' का होना तो उच्चारण की विविधता और प्रति के लेखनवैचित्र्य का फल है । ९ २. समय विचार प्रस्तावना कलंक के समय के विषय में मुख्यतया दो मत हैं । पहिला स्वर्गीय डॉ० के० बी० पाठक का और दूसरा प्रो० श्रीकण्ठशास्त्री तथा पं० जुगलकिशोर मुख्तार का । डॉ० पाठक मल्लिषेणप्रशस्ति के ' राजन् साहसतुंग ' श्लोक के आधार से इन्हें राष्ट्रकूट वंशीय राजा दन्तिदुर्ग या कृष्णराज प्रथम का समकालीन मानते हैं, और अकलंकचरित के - “ विक्रमार्कशकाब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि । काले ऽकलंकयतिनो बौद्धैर्वादो महानभूत् ॥” इस श्लोक के 'विक्रमार्कशकाब्द' शब्द का शकसंवत् अर्थ करते हैं । अतः इनके मतानुसार कलंकदेव शकसंवत् ७०० ( ई० ७७८ ) में जीवित थे । दूसरे पक्ष में श्रीकण्ठशास्त्री तथा मुख्तारसा० ' विक्रमार्कशकाब्द ' का विक्रमसंवत् अर्थ करके कलंक देवकी स्थिति विक्रम सं० ७०० ( ई० ६४३ ) में बतलाते हैं । प्रथममत का समर्थन स्व० डॉ० आर० जी० भाण्डारकर, स्व० डॉ० सतीशचन्द्र विद्याभूषण तथा पं० नाथूरामजी प्रेमी आदि विद्वानों ने किया है । इसके समर्थनार्थ हरिवंशपुराण ( १।३१ ) में अकलंकदेव का स्मरण, कलंक द्वारा धर्मकीर्ति का खंडन तथा प्रभाचन्द्र के कथाकोश में कलंक को शुभतुंग का मन्त्रिपुत्र बतलाया जाना आदि युक्तियाँ प्रयुक्त की गई हैं । दूसरे मत के समर्थक प्रो० ए० एन० उपाध्ये और पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री आदि हैं । इस मत के समर्थनार्थ वीरसेन द्वारा धबलाटीका में राजवार्तिक के अवतरण लिये जाना, हरिभद्र के द्वारा 'अकलंक न्याय' शब्द का प्रयोग, सिद्धसेनगणिका सिद्धिविनिश्चय वाला उल्लेख, जिनदासगणि महत्तर द्वारा निशीथचूर्णि में सिद्धिविनिश्चय का दर्शनप्रभावक शास्त्ररूपसे लिखा जाना आदि प्रमाण दिए गए हैं' । १ इन दोनों मतों के समर्थन की सभी युक्तियों का विस्तृत संग्रह न्यायकुमुदचन्द्र की प्रस्तावना में देखना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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